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________________ २२८ ] जिज्ञासु मुनि बड़े साहस और उमंग के साथ आचर्य भद्रबाहु के चरणों । में जा पहुंचे। उन्होंने वहां पहुँच कर निवेदन किया भगवन् ! हम आपकी उपसम्पदा ग्रहण कर रहे हैं। हमें अपने चरणों में स्थान दीजिए। अब हम आपके नियंत्रण और निर्देशन में रहेंगे। भद्रबाहु जैसे असाधारण गुरू को पाकर स्थूलभद्र ने अपने को कृतार्थ माना। उन्होंने सोचा मैं धन्य हैं कि मुझे इस युग के सर्वश्रेष्ठ जिनागमवेत्ता, सिद्धान्त के पारगामी महामुनि से ज्ञानलाभ करने का सुयोग मिला है। उधर भद्रबाहु स्वामी भी सुपात्र शिष्य पाकर प्रसन्न थे। पूर्वकाल में ज्ञान देने के लिए पात्र-अपात्र का बहुत ध्यान रक्खा जाता था। अपात्र को विद्या देना उसके लिए और दूसरों के लिए भी हानिकारक समझा जाता था। सुपात्र न मिलने के कारण कई विद्याएं न दी गई और वे नामशेष हो गई। वे विद्याएं विद्यावानों के साथ ही चली गई पर अपात्र को नहीं दी गई। महामुनि भद्रबाहु ने ज्ञानार्थी मुनियों को सूचित किया-दिन और रात्रि में सात वाचनाएं दें सक्कू गा-दो प्रातःकाल, दो मध्याह्न में और तीन रात्रि में । सोचने की बात है कि इतना समय श्रु तपाठन के लिए देने और साथ ही महाप्राण ध्यान की प्रक्रिया को चालू रखने पर उन्हें विश्रान्ति के लिए कितना समय बचा होगा ? मगर उन्हें अमर दीप जगाना था। श्रत की जो अविच्छिन्न धारा उन तक पहुंची थी उसे आगे बढ़ाना था। वे भलीभांति समझते थे कि मेरे ऊपर गुरू का जो महान् ऋण है उसे चुकाने का एक मात्र उपाय यही है कि उनसे प्राप्त किया हुआ अनमोल ज्ञान किसी सुपांत्र शिष्य को दिया जाय । इस प्रकार की उच्च एवं उदार विचारधारा की बदौलत ही श्रुत की परम्परा बराबर चालू रह सकी। आचार्य भद्रबाहु ने अपने विश्राम आदि की चिन्ता न करते हुए ज्ञानआलोक के प्रसार में महत्त्वपूर्ण योग प्रदान किया। आज हमें जिनेन्द्रदेव की
SR No.010710
Book TitleAadhyatmik Aalok Part 03 and 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj, Shashikant Jha
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year
Total Pages443
LanguageHindi, Sanskrit, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Discourse
File Size23 MB
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