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________________ कुत्सित कर्म अन्तर्दृष्टि से देखने पर साधक को अपना सत्य स्वरूप समझ में आता है। यों तो संसार के सभी नेत्रों वाले प्राणी देखते हैं और मन वाले प्राणी सोच-विचार करते हैं, मगर यह सब देखना और सोचना तभी सार्थक होता है जब अपने सच्चे स्वरूप को समझ लिया जाय । अपने स्वरूप को समझ लेना सरल नहीं है। बड़े-बड़े वैज्ञानिक भौतिक पदार्थों के विषय में गहरी जानकारी प्राप्त कर लेते हैं किन्तु अपने आपको नहीं जान पाते। और जब तक स्व-स्वरूप को नहीं जान पाया तब तक पर-पदार्थों का गहरे से गहरा ज्ञान भी निरर्थक है। इसी कारण भारत के ऋषि-मुनियों ने आत्मा को पहचानने की प्रबल प्रेरणा की है । भगवान् महावीर ने तो यहां तक कह दिया है जे एगं जारगइ से सव्वं जाणइ । __ जो एक-आत्मा को जान लेता है, वह सभी को जान लेता है। प्रात्म ज्ञान हो जाने पर प्रात्मा परिपूर्ण चैतन्यमय प्रकाश से उद्भासित हो उठता है। उसके समक्ष अखिल विश्व हस्तामलकवत् हो जाता है। जगत् का कोई भी गुह्य उससे छिपा नहीं रहता। यह आत्मज्ञान का अपूर्व प्रभाव है। __ वैदिक ऋषियों की भी यही पुकार रही है। 'श्रोतव्यो मन्तव्यो निदिध्यासितव्योयमात्ना' यह उनके वचनों की बानगी है। वे कहते हैंअरे ! यह आत्मा ही श्रवण करने योग्य है, मनन करने योग्य है और निदिध्यासन करने योग्य है। इस प्रकार भारतीय तत्त्वज्ञान में आत्मज्ञान की आवश्यकता और महिमा का जो प्रतिपादन किया गया है, उसका एकमात्र हेतु यही है कि प्रात्मज्ञान से ही प्रात्मकल्याण सिद्ध किया जा सकता है । आत्मज्ञानहीन
SR No.010710
Book TitleAadhyatmik Aalok Part 03 and 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj, Shashikant Jha
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year
Total Pages443
LanguageHindi, Sanskrit, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Discourse
File Size23 MB
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