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________________ 'पा .. [ १८१ अपने अधीन बना लेती है। अतएव समझदार मनुष्य किसी के आग्रह से .. अथवा कुतूहल से भी मादक द्रव्य के सेवन की शुरूआत नहीं करे। भगवान् महावीर ने कहा-हे मानव ! तुझे. जो बुद्धि मिली है वह नष्ट करने के लिए नहीं । अतएव तु ऐसा रस ले और दे कि जिससे तेरा तथा समाज कल्याण हो। मुनि स्थूलभद ने स्वयं ज्ञान का अमीरस प्राप्त करके वेश्या को दिया। उस रस के प्रास्वादन से वेश्या का वेश्यापन जाता रहा । उसमें श्राविका के रूप का प्रादुर्भाव हुआ। अब वही वेश्या अपने काम-रस को त्याग कर भूले-भटके तपस्वी को सन्मार्ग पर ला रही है । उसने ऐसे अद्भुत कौशल के साथ तपस्वी के जीवन में परिवर्तन किया कि तपस्वी भी दंग रह गया। तपस्वी जब होश में आए तो बोले-रूपकोशे ! तू ने मुझे तार दिया। मोह और अज्ञान का अन्धकार मेरी दृष्टि के सामने छा गया था और उसमें मेरा चित्त भटक गया था ! तू ने आलोक-पुज बन कर सच्ची राह दिखला दी । तू ने चिकित्सक की तरह मेरे मन की व्याधि को दूर कर दिया। अब मेरे मन का मल धुल गया है। तेरे उपकार से मैं धन्य हो गया। मेरे गिरते जीवन को तू ने बचा लिया ! मैं नहीं समझ पाया कि महामुनि स्थूलभद्र ने यहां क्या .. साधना की थी ? चतुर चिकित्सक पहले विरेचन की दवा देकर फिर रोग- नाशक दवा देता है, इसी प्रकार तू ने पहले मुझे भटका कर बाद में औषध दी है। .. इस प्रकार तपस्वी ने रूपाकोशा के प्रति कृतज्ञता प्रकट की, रूपाकोशा ने उत्तर में कहा-मुनिवर ! मैंने अपने कर्तव्य का पालन किया है, इससे अधिक कुछ भी नहीं किया। महामुनि स्थूलभद्र ने ही मुझे यह सीख दी थी। उसी का यह परिणाम है। इसमें मेरी किंचित् भी बड़ाई नहीं है। स्थूलभद्र ने मेरे जीवन को मोड़ दिया और उन्होंने ही मुझे सेवा करने का यह तरीका सिखलाया है। उन्हीं के शुभ समागम से मैंने धर्म का मंगलमय पथ पाया है और मैं श्राविका धर्म का पालन कर रही हूँ । व्यवहार में महाजन का बच्चा यदि जान बूझ कर ऐसा लेन-देन करे जिससे आर्थिक हानि हो तो उसका पिता
SR No.010710
Book TitleAadhyatmik Aalok Part 03 and 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj, Shashikant Jha
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year
Total Pages443
LanguageHindi, Sanskrit, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Discourse
File Size23 MB
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