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________________ . . ..... [१७३ रत्नकंबल अधिक मूल्यवान है अथवा संयम-रत्न अधिक मूल्यवान् है ? रत्न बल तो सोने चांदी के टुकड़ों से खरीदा जा सकता है मगर संयमरत्न तो अनमोल है। तीन लोक का ऐश्वर्य दे कर भी संयम नहीं खरीदा जा सकता क्या उसका उपयोग आपने अधम काम के लिए नहीं किया है ? . . . रूपाकोशा के वचनों का वाण लक्ष्य पर लगा। मुनि के अज्ञान का पर्दा हट गया । मोह का अंधकार सहसा विलीन हो गया । म्रम भाग गया। वे रूपाकोशा की ओर विस्मयपूर्ण दृष्टि से देखने लगे। पहले की और अब की दृष्टि में आकाश-पाताल जितना अन्तर था, अब तक उन्होंने रूपाकोशा के जिस रूप । को देखा था, यह रूप उससे एकदम निराला था। उसमें घोर मादकता थी, इसमें पावनी शक्ति थी । वह रूप मार्ग भुलाने वाला था, यह मार्ग बतलाने वाला था, उस रूप ने उनमें आत्मविस्मृति उत्पन्न कर दी थी, पर इसने स्वरूप की स्मृति जागृत कर दी। वास्तव में पदार्थ तो अपने स्वरूप में जैसे हैं वैसे ही हैं, परन्तु उन्हें देखने वालों की वृत्ति विभिन्न प्रकार की होती है । दो मनुष्य एक ही वस्तु को देखते हैं मगर एक अपनी दृष्टि का विष उसमें मिला देता है और दूसरा उसे दृष्टि के अमृत से पूत बना देता है । "यथा दृष्टिस्तथासृष्टि." की उक्ति वास्तव में सत्य है। . मुनि ने पहले भी रूपाकोशा के मुखमण्डल को देखा था और अब भी देख रहे थे । मगर इस समय की उनकी दृष्टि में अनेक सात्त्विक भाव भरे हुए थे। वह सोचने लगे रूपाकोशा वेश्या नहीं महान् शिक्षिका है, संयम और आत्मा की संरक्षिका है । वास्तव में मैं मान भूल गया था, पथभ्रष्ट हो गया था । रूपाकोशा ने मुझे अधःपतन के गर्त से उबारलिया है । मैं अपने संयम रूप चिन्तामणि को गँवाने पर उतारू हो रहा था। कृतज्ञ हूं इस देवी का जिसने स्थिरीकरण प्राचार का अवलम्बन लेकर मुझे बचा लिया।
SR No.010710
Book TitleAadhyatmik Aalok Part 03 and 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj, Shashikant Jha
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year
Total Pages443
LanguageHindi, Sanskrit, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Discourse
File Size23 MB
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