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________________ (१) चोरी की वस्तु खरीदना, और (२) चोर को सहयोग देना। चोर द्वारा चुराई हुई वस्तु लेना अथवा खरीदना प्रथम अतिचार या दोष है। यह प्रत्यक्ष चोरी न होने पर भी अप्रत्यक्ष चोरी है । ऐसा पाप करने से आत्मा हल्की नहीं रहती । यह वस्तु चोरी की है अथवा नहीं, यह निर्णय करना कठिन नहीं है, क्योंकि चोरी की वस्तु प्रायः कम मूल्य में मिलती हैं । जो चुराई हुई वस्तुओं को खरीदते हैं, उनकी लोक में भी विश्वसनीय स्थिति नहीं रहती शासन के कानून के अनुसार भी वह दण्डनीय होते हैं। इस प्रकार लोकिक हानि के साथ उनका आत्मिक पतन भी होता हैं, क्योंकि उनमें आसक्ति एवं कपाय की बहुलता होती हैं। इसी प्रकार लूट या डकैती का माल भी श्रावक को नहीं लेना चाहिए, क्योंकि अनीति से आया होने के कारण ऐसा द्रव्य शान्तिदायक नहीं होता। दूसरा दोष है चोर को चोरी करने के लिए प्ररित करना, परामर्श देना, उपाय बतलाना आदि । मनुष्य यदि शास्त्र के बतलाये मार्ग पर चले तो उसे किसी प्रकार का खतरा नहीं हो सकता । जो चोरी संवन्धी सब दोषों से दूर रहता है उसे भय का पात्र नहीं बनना पड़ता । अतः चोर को किसी भी रूप में सहयोग नहीं देना चाहिए । तीसरा दोष हैं योग्य अधिकारी की अनुमति प्राप्त किये बिना विरुद्ध राज्य की सीमा में प्रवेश करना । ऐसा करने से मनुष्य की प्रामाणिकता में बाधा पहुँची हैं। एक राज्य की सीमा दूसरे राज्य से मिली होती है। किसी राज्य में एक वस्तु का मूल्य प्राधिक होता है तो दूसरे में उसी का मूल्य अल्प होता है । ऐसी स्थिति में कुछ लोग धन लोलुपता के अतिरेक से प्रेरित होकर अवैध रूप. . मे उस वस्तु को वहुमूल्य वाले देश में पहुँचाया करते हैं । इस प्रकार का व्यापार अाज तस्कर व्यापार कहलाता है । अाधुनिक कानून की दृष्टि में भी यह कृत्य .. चोरी में गिना जाता है । जैन शास्त्र सदा से ही इसे चौर्य-व्यापार गिनता आया
SR No.010710
Book TitleAadhyatmik Aalok Part 03 and 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj, Shashikant Jha
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year
Total Pages443
LanguageHindi, Sanskrit, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Discourse
File Size23 MB
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