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________________ 50 आध्यात्मिक आलोक रूप हो जाते हैं । धीरे-धीरे उपचारों से वह प्रभाव मिटकर मन स्वस्थ होता है । जैसे भंग के परमाणु स्वयं के द्वारा ग्रहण करने पर ही दुःख देते हैं, वैसे कर्म परमाणु भी अपने द्वारा ग्रहण किए जाने पर ही दुःखदायी होते हैं। कर्म बन्ध से बचने का उपाय साधना है जो दो प्रकार की है, एक साधु मार्ग की साधना और दूसरी गृहस्थ धर्म साधना । दोनों में अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह रूप पांच व्रतों के पालने की व्यवस्था की गई है । साधु-मार्ग की साधना महा कठोर और पूर्ण त्याग की है किन्तु गृहस्थ की धर्म साधना सरल है। गृहस्थ के व्रत में मर्यादा होती है । आनन्द की साधना भी देश साधना है । उसने श्रावक धर्म को स्वीकार करते हुए सर्व प्रथम स्थूल हिंसा का त्याग किया जो साधना पथ की सबसे बड़ी बाधा है। संसार में जीवन निर्वाह करते हुए शरीर धारी के सम्मुख हिंसा के अवसर आते रहते हैं । ऐसी स्थिति में अहिंसा व्रत का निर्वाह कैसे किया जाय ? इस प्रकार आनन्द के द्वारा पूछे जाने पर प्रभु ने बतलाया कि हिंसा के दो भेद हैं :- एक स्थूल हिंसा और दूसरी सूक्ष्म हिंसा । सूक्ष्म हिंसा के अन्तर्गत निम्न पांच बातें आती हैं - १-पृथ्वी काय के जीवों की हिंसा, स्जलीय जीवों की हिंसा, ३-अग्नि के जीवों की हिंसा, ४-वायु के जीवों की हिंसा, ५वनस्पति के जीवों की हिंसा । गृहस्थ के लिए दैनिक व्यवहार में इनका सर्वथा त्याग संभव नहीं । फिर भी विवेकी को इसके लिए ध्यान रखना चाहिए, यह सूक्ष्म हिंसा है। किन्तु दूसरी स्थूल हिंसा जिसमें एक कीट से लेकर पशु पक्षी और मनुष्य तक सारे चर प्राणी आ जाते हैं, श्रावक को स्थूल रूप में चलने-फिरने वाले जीव जन्तुओं की जान-बूझकर दुर्भाव से हिंसा नहीं करनी चाहिए । आनन्द ने ऐसी प्रतिज्ञा कर ली। साधु या व्रती से पाप हो सकता है परन्तु उसका संकल्प है कि जान बूझकर पाप नहीं करना | पाप का हो जाना. और पाप करना ये दो भिन्न-भिन्न बातें हैं । करने में मन की प्रेरणा होती हैं और होने में मात्र काय चेष्टा । यदि हमारे व्यवहार से किसी के हृदय पर ठेस लग गई और उससे क्षमा मांगकर परिशोधन कर लिया तो वह शान्त हो जायगा और यदि अनायास ही किसी को पीड़ा पहुँच जाय तो यह जान-बूझकर पीडा न पहुँचाने के कारण क्षम्य है किन्तु कंकर की चोट भले ही कम हो, पर जानबूझकर मारने वाले को आप कड़ी दृष्टि से देखते हैं । किन्तु अनजाने मिलने वाली पीड़ा को भी क्षमा की नजरों से देखते हैं । हर प्राणी को अपनी जान प्यारी होती है, अतएव हिंसा से बचना हर मानव का परम पुनीत कर्तव्य है । कवि ने ठीक ही कहा है
SR No.010709
Book TitleAadhyatmik Aalok Part 01 and 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj, Shashikant Jha
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year
Total Pages599
LanguageHindi, Sanskrit, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Discourse
File Size28 MB
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