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________________ 569 आध्यात्मिक आलोक जल्दी खुल जाती है । आवश्यकता से अधिक निद्रा होगी तो साधना में बाधा आएगी, विकृति उत्पन्न होगी और स्वाध्याय-ध्यान में विघ्न होगा । ब्रह्मचारी गद्दा बिछा कर न सोए, यह नियम है । ऐसा न करने से प्रमाद तथा विकार बढ़ेगा । साधु-सन्तों को औषध-भेषज का दान देने का भी बड़ा माहात्म्य है । औषध शब्द की व्युत्पत्ति इस प्रकार होती है-'ओषं-पोषं धत्ते, इति औषधम्' । सोंठ, लवंग, पीपरामूल, हर्र आदि वस्तुएं औषध कहलाती हैं । यूनानी चिकित्सा पद्धति में भी इसी प्रकार की वस्तुओं का उपयोग होता है । प्राचीन काल में भारतवर्ष में आहार-विहार के विषय में पर्याप्त संयम से काम लिया जाता था । इस कारण उस समय औषधालय भी कम थे । कदाचित् कोई गड़बड़ हो जाती थी तो बुद्धिमान मनुष्य अपने आहार-विहार में यथोचित् परिवर्तन करके स्वास्थ्य प्राप्त कर लेते थे । चिकित्सकों का सहारा क्वचित् कदाचित ही लिया जाता था । करोड़ों पशु-पक्षी वनों में वास करते हैं। उनके बीच कोई वैद्य-डॉक्टर नहीं है। फिर भी वे मनुष्यों की अपेक्षा अधिक स्वस्थ रहते हैं। इसका कारण यही है कि वे प्रकृति के नियमों की अवहेलना नहीं करते । मनुष्य अपनी बुद्धि के घमण्ड में आकर प्रकृति के कानूनों को भंग करता है और प्रकृति कुपित होकर उसे दण्डित करती है। मास-मदिरा आदि का सेवन करना प्रकृति के विरुद्ध है। मनुष्य के शरीर में वे आतें नहीं होती वह पाचन संस्थान नहीं होता जो मांसादि को पचा सकें । मांसभक्षी पशुओं और मनुष्यों के नाखून दांत आदि की बनावट में भी अन्तर है । फिर भी जिह्वालोलुप मनुष्य मांस-भक्षण करके प्रकति के कानून को भंग करते हैं । फलस्वरूप उन्हें दंड का भागी होना पड़ता है। पशु के शरीर में जब विकार उत्पन्न होता है तो वह चारा खाना छोड़ देता है । यह रोग की प्राकृतिक चिकित्सा है । किन्तु मनुष्य से प्रायः यह भी नहीं बन पड़ता । बीमार कदाचित खाना न चाहे तो उसके अज्ञानी पारिवारिक जन कछ न कुछ खा लेने की प्रेरणा करते हैं और खिला कर ही छाड़त है। इस प्रकार पश अनशन के द्वारा ही अपने रोग का प्रतीकार कर लेते हैं। इसके विपरीत बीमार मनुष्य बीमारी में भी खाना ठुसकर अधिक बीमार होता जाता है। गर्भावस्था में मादा पशु न समागम करने देती है और न नर समागम करने को इच्छा ही करता है । मनुष्य इतना भी विवेक और सन्तोष नहीं रखता । मनुष्य का आज आहार सम्बन्धी अंकुश बिलकुल हट गया है । वह घर " जाता है और घर से बाहर दकानों और खोमचों पर जाकर भी दोन चाटता हा ये बाजारू चीजें प्रायः स्वास्थ्य का विनाश करने वाली, विकार वर्द्धक और हिंसाजनित होने के कारण भी होती हैं । दिनों-दिन इनका प्रचार बढ़ता जा
SR No.010709
Book TitleAadhyatmik Aalok Part 01 and 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj, Shashikant Jha
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year
Total Pages599
LanguageHindi, Sanskrit, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Discourse
File Size28 MB
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