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________________ आध्यात्मिक आलोक मानव जन्मते समय कुछ भी साथ लेकर इस वसुधा पर नहीं आता । किन्तु बिना साधन के आने पर भी जीवन की सभी आवश्यक सामग्री उसे उपलब्ध होती रही है । माँ का मीठा ताजा दूध, स्वच्छ हवा, प्रियजनों का प्यार एवं प्रकृति की अन्य सुविधा का पूर्ण लाभ उसे मिलता रहता है । जन्म से नंगा मानव होश में आकर विविध साज-श्रृंगारों से अपने जीवन को सजाता और मरकर भी कफन से तन ढक कर ही चिता पर चढता है । आवश्यकता की पूर्ति के लिए कर्मानुसार सबको मिलता है । हाँ-लाभ में पुण्य का बल अवश्य अपेक्षित है । वस्तुतः मनुष्य जब सहज रूप से अपना जीवन निभा सकता है तो वैभव के लिए दुर्गुण अपनाने की क्या आवश्यकता है? किसी कवि ने ठीक ही कहा है ग्रामे ग्रामे कुटी रम्या, निझर निझर जलम् । भिक्षायां सुलभं चान्न, विभवैः किं प्रयोजनम् ।। आज के मनुष्य ने अपनी करनी, योग्यता तथा भगवान पर से विश्वास उठा लिया है, उसीका परिणाम यह विस्तृत दुःख और दारिद्र्य है। वह सोचता है - आज खाने को है कल न रहा तो."I, आज स्वस्थ हैं कल बीमार पड़ गये तो.......। इसी प्रकार हर बात के लिए 'तो' का शंकास्पद प्रश्न मन में उठता रहता है और मनुष्य इसी शंका के चक्कर में पड़कर हरक्षण अशान्त एवं दुःखी बना रहता है। आत्म-साधना में तर्क और शंका को हटाना ही श्रेयस्कर है । सत्य और विश्वास के बल पर चला हुआ हर कार्य सुखदायी होता है, जो मनुष्य जीवन के लिए अपेक्षित है । आज मानव दुर्बलता से घिरा हुआ है । दुर्बलताओं को मन से निकाले बिना उसे सच्ची शान्ति नहीं मिल सकती । संसार में उनका ही जीवन महत्वपूर्ण है, जिनके मन में रंचमात्र भी संशय या शंका नहीं होती तथा जो प्रण पर अपने प्राण को न्यौछावर करने की हिम्मत रखते हैं । देखिए अनुभवी पुरुषों ने जीवन की परिभाषा करते क्या कहा है - जगत में उनका जीवन जान । जिन्हें न होती शंक रच भी, प्रण पर देते प्राण । जो क्षत खाकर भी करते हैं, औरों का उत्थान |जगत.।
SR No.010709
Book TitleAadhyatmik Aalok Part 01 and 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj, Shashikant Jha
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year
Total Pages599
LanguageHindi, Sanskrit, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Discourse
File Size28 MB
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