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________________ आध्यात्मिक आलोक 541 श्रमणोपासक आनन्द प्रभु महावीर के समक्ष कहता है-"मैं अपने जीवन में विशद्ध सम्यग्दर्शन प्राप्त करना चाहता हूँ।" दर्शन में अशुद्धि होने से बद्धि की वास्तविक निर्णायिका शक्ति समाप्त हो जाएगी। वह वन्दनीय और अवन्दनीय को क्या समझ सकेगा? आनन्द चाहता है कि मेरी बुद्धि में निर्णायक शक्ति और स्वरूप में निश्चलता आ जाए । वह बुद्धि की इस शक्ति पर पर्दा नहीं डालना चाहता । जिनका व्यवहार शुद्ध न हो, जिनका आचार शुद्ध न हो, उनके साथ लेन-देन करना व्रती श्रावक के लिए उचित नहीं है । व्यक्ति की योग्यता, शील-स्वभाव, किन उपायों से वह द्रव्य उपार्जन करता है, आदि की जाँच करके लेन-देन किया जाना चाहिए । जो व्यवहार में ऐसा ध्यान रखेगा, वह आध्यात्मिक क्षेत्र में क्यों नहीं सजग रहेगा? पारमात्मा की आराधना शान्ति प्राप्त करने के लिए की जाती है मन की आकुलता यदि बनी रही तो शान्ति कैसे प्राप्त हो सकती है ? गलत तरीके से आया धन मन को अशान्त बना देगा, अतएव साधक अर्थार्जन के लिए किसी प्रकार का अनैतिक कार्य न करे । न्याय नीति से ही धनोपार्जन करना श्रावक का मूलभूत कर्तव्य है। साधक के लिए विचारों की शुद्धि और अपरिग्रह की बुद्धि अत्यन्त आवश्यक है। विचार शुद्धि से वह देव, गुरु, धर्म संबधी विवेक प्राप्त करेगा और उनके विषय में निश्चल स्थिति प्राप्त कर लेगा । अपरिग्रह की भावना से हाथ लम्बे नहीं करेगा । जिसके व्यवहार में ये दोनों तत्व नहीं होंगे, जिसका व्यवहार बेढगे तौर पर चलेगा, वह शान्ति नहीं पाएगा। इतना सम्यग्ज्ञान आवश्यक होता है । अन्य ज्ञान की कमी हो तो काम चल सकता है, परन्तु जीवन बनाने का ज्ञान न हो तो जीवन सफल नहीं हो सकता। ज्ञेय विषय अनन्त हैं और एक-एक पदार्थ में अनन्त-अनन्त गुण और पर्याय हैं । ज्ञान का पर्दा पूरी तरह हटे बिना उन सबको जानना संभव नहीं है । परन्तु हमें सर्वप्रथम जीवन की कला का ज्ञान प्राप्त करना चाहिए। उसे प्राप्त करने में अधिक समय नहीं लगता । अगर आपको जीवन के उत्तम कलाकार गुरु का सान्निध्य मिल गया तो उसे पाने में विशेष कठिनाई भी नहीं होती । बस, भीतर जिज्ञासा गहरी होनी चाहिए । जीवन की कला का ज्ञान प्रयोजन भूत ज्ञान है और उसे पा लिया तो सभी कुछ पा लिया । जिसने उसे नहीं पाया उसने और सब पा लेने पर भी कुछ भी नहीं पाया ।
SR No.010709
Book TitleAadhyatmik Aalok Part 01 and 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj, Shashikant Jha
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year
Total Pages599
LanguageHindi, Sanskrit, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Discourse
File Size28 MB
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