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________________ आध्यात्मिक आलोक 531 अपने निर्मल स्वरूप को प्राप्त कर परम ब्रह्म परमात्मा बन गए हैं, वे ही मेरे लिए आराध्य हैं।" __ पतिव्रता नारी जिसे वरण कर लेती है, आजीवन उसके प्रति पूर्ण निष्ठा रखती है । वह अन्य पुरुष की कामना नहीं करती है । पति के प्रति निष्ठा न रखने वाली नारी कुशीला कहलाती है । साधक भी परीक्षा करने के पश्चात् सर्वज्ञ एवं वीतराग देव को अपने आराध्य देव के रूप में वरण कर लेता है और फिर उनके प्रति अनन्य निष्ठा रखता है । उसकी निष्ठा इतनी प्रगाढ़ होती है कि देवता और 'दानव भी उसे विचलित नहीं कर सकते । जो वीतराग मार्ग का आराधक है, जो अनेकान्त दृष्टि का ज्ञाता है और आरम्भ परिग्रहवान नहीं है, उसकी श्रद्धा पक्की ही होगी । साधक को सौ टंच के सोने के समान खरा ही रहना चाहिये। केशी श्रमण का वेष अलग प्रकार का था और गौतम गणधर का अलग तरह का । प्रश्न खड़ा हुआ-दोनों का उद्देश्य एक है, मार्ग भी एक है, फिर यह भिन्नता क्यों है ? इस प्रश्न का समाधान करने के लिए दोनों महामुनि परस्पर मिले । दोनों में वार्तालाप हुआ । उसी समय गौतमस्वामी ने स्पष्टीकरण किया-"लिंग अर्थात् वेष को देखकर अन्यथा सोच-विचार नहीं करना चाहिये । द्रव्यलिंग का प्रयोजन लौकिक है । वह पहचान की सरलता के लिये है । कदाचित् द्रव्यलिंग अन्य का हो किन्तु भावलिंग अर्हदुपदिष्ट हो तो भी साधक मुक्ति प्राप्त कर सकता है।" देव, गुरु और धर्म का स्वरुप बतलाते हुए कहा है सो धम्मो जत्य दया, दसट्टदोसा न जस्स सो देवो । सो हु गुरु जो नाणी आरम्भ परिगहा विरओ ।। अर्थात् जहां दया है वहां धर्म है । जिसमें दया का विधान नहीं है वह पन्थ, सम्प्रदाय या मार्ग धर्म कहलाने योग्य नहीं । कबीरदास भी कहते हैं- जहाँ दया तहं धर्म है, जहां लोभ तहां पाप । जहां क्रोध तहां ताप है, जहां क्षिमा तहां आप || आराध्य देव का क्या स्वरूप है ? इसका उत्तर यह है कि जिसमें अठारह दोष न हों वह. देव पदवी का अधिकारी है । अठारह दोष इस प्रकार हैं-१) मिथ्यात्व (२) अज्ञान (३) मद (8) क्रोध (4) माया () लोभ (७) रति (८) अरति (९) निद्रा () शोक (११) असत्य भाषण (१२) चौर्य (१३) मत्सर्य (१४) भय
SR No.010709
Book TitleAadhyatmik Aalok Part 01 and 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj, Shashikant Jha
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year
Total Pages599
LanguageHindi, Sanskrit, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Discourse
File Size28 MB
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