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________________ 502 • आध्यात्मिक आलोक वनस्पति को अचेतन कहते हैं। इस थोड़े से उल्लेख से ही आप समझ सकेंगे कि जीव और अजीव को समझ में भी कितना भ्रम फैला हुआ है। जीव सम्बन्धी अज्ञान का प्रभाव आचार पर पड़े बिना नहीं रह सकता। जो जीव को जीव ही नहीं समझेगा, वह उसकी रक्षा किस प्रकार कर सकेगा ? वैदिक सम्प्रदाय के त्यागी वर्गों में कोई पंचाग्नि तप कर के अग्निकाय का घोर आरम्भ करते हैं, कोई कन्द-मूल-फल-फूल खाने में तपश्चर्या मानते हैं। यह सब जीव तत्त्व को न समझने का फल है। वे जीव को अजीव समझते हैं, अतएव संयम के वास्तविक -स्वरूप से भी अनभिज्ञ रहते हैं। नतीजा यह होता है कि संयम के नाम पर असंयम का आचरण किया जाता है। इससे आप समझ गये होंगे कि ज्ञान और आचार का अत्यन्त घनिष्ठ सम्बन्ध है। यही कारण है कि वीतराग भगवान ने ज्ञान और चारित्र दोनों को मोक्ष प्राप्ति के लिए अनिवार्य बतलाया है। ज्ञान के अभाव में चारित्र सम्यक् चारित्र नहीं हो सकता और चारित्र के अभाव में ज्ञान निष्फल ठहरता है। ज्ञान एक दिव्य एवं आन्तरिक ज्योति है । जिसके द्वारा मुमुक्षु का गन्तव्य पथ आलोकित होता है। जिसे यह आलोक प्राप्त नहीं है वह गति करेगा तो अन्धकार में भटकने के सिवाय अन्य क्या होगा ? इसी कारण मोक्षमार्ग में ज्ञान को प्रथम स्थान दिया गया है। शास्त्र में कहा गया है नाणेण जाणइ भावे, दसणेण य सरहे । चरित्तेण निगिण्हाइ, तवेण परिसुज्झइ ।।। प्रत्येक वस्तु की अपनी-अपनी जगह पर अपनी-अपनी महिमा है। एक गुण दूसरे गुण से सापेक्ष है। परस्पर सापेक्ष सभी गुणों की यथावत् आयोजना करने वाला ही अपने जीवन को ऊंचा उठाने में समर्थ हो सकता है। हेय, ज्ञेय, और उपादेय का ज्ञान हो जाने पर भी यदि कोई उस पर श्रद्धा नहीं करेगा तो वह वैसे ही है जैसे कोई खाकर पचा न सके। इससे रस नहीं बनेगा। वह ज्ञान जो श्रद्धा का रूप धारण नहीं करेगा, टिक नहीं सकेगा। श्रद्धा सम्पन्न ज्ञान की विद्यमानता में भी यदि चारित्र गुण का विकास नहीं होगा तो वह ज्ञान व्यर्थ है। ज्ञान के प्रकाश में जब चारित्र गुण का विकास होता है तो वह पापकर्म को रोक देता है। फिर कुशील, हिंसा, असत्य आदि पाप नहीं आ पाते! तप का काम है शुद्धि करना वह संचित पापकर्म को नष्ट करता है। कर्मो को निश्शेष करने का उपाय यही है कि संयम का आचरण करके नवीन कों के वन्ध को निरुद्ध कर दिया जाय और तप के द्वारा पूर्व संचित कर्मों को नष्ट
SR No.010709
Book TitleAadhyatmik Aalok Part 01 and 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj, Shashikant Jha
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year
Total Pages599
LanguageHindi, Sanskrit, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Discourse
File Size28 MB
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