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________________ 496 आध्यात्मिक आलोक (३) कालातिक्रम : उचित समय पर अतिथि के आगमन की भावना करनी चाहिए । जो सूर्यास्त के पश्चात् और सूर्योदय से पूर्व आहार ग्रहण नहीं करते, उनके लिए ऐसे समय में आने की भावना करने से क्या लाभ ? दान देने से बचने के लिए काल का अतिक्रमण करके आगे-पीछे भोजन बनाना भी इस अतिचार में सम्मिलित माना गया है । वस्तु की दृष्टि से भी कालातिक्रम या कालातिक्रान्त अतिचार का विचार किया जा सकता है । जो वस्तु अपनी कालिक सीमा लांघ चुकी हो, उसे देना भी अतिचार है, चाहे वह जल हो, अन्न हो या कुछ अन्य हो। प्रत्येक खाद्य पदार्थ, चाहे वह पक्का अर्थात् तला हुआ हो या कच्चा हो, एक नियत समय तक ही ठीक हालत में रहता है । उसके बाद उसमें विकृति आ जाती है । वह सड़-गल जाता है और उसमें जीवों की उत्पत्ति भी हो जाती है । उस हालत में वह न खाने योग्य रहता है, न देने योग्य ही ।। बहुत-सी बहिनें अज्ञान और लालच के वशीभूत होकर खाने-पीने की चीजें जमा कर रखती हैं और जब वे विकृत हो जाती हैं तब उन्हें काम में लेती हैं । यह आदत लौकिक और लोकोत्तर दोनों दृष्टियों से हानिकारक है । विकृत पदार्थों के खाने से स्वास्थ्य को भी हानि पहुँचती है और हिंसा के पाप से आत्मा का भी अकल्याण होता है । कई बार तो आज की रोटी कल ही बिगड़ जाती है । उसे तोड़ा जाय तो उसमें से एक तार-सा निकलता है। कहा जाता है कि वह तार वास्तव में 'लार' नामक द्वीन्द्रिय जीव है । आम आदि फल.भी जब कालातिक्रान्त हो जाते हैं तो उनमें त्रस जीव उत्पन्न हो जाते हैं। बड़े होने पर वे बिल-बिलाते नजर आने लगते हैं मगर प्रारम्भिक अवस्था में उत्पन्न होने पर भी दिखाई नहीं देते। उनके सेवन से हिंसा का घोर पाप होता है । अतएव महिलाओं को तथा भाइयों को भी इस ओर पूरा ध्यान रखना चाहिए और कालातिक्रान्त सड़ी-गली, घुनी वस्तुओं को खाने-पीने के काम में नहीं लेना चाहिए । जो बहिने विवेकशालिनी हैं वे आवश्यकता के अंदाज से ही भोज्य पदार्थ बनाती हैं । किसी भी वस्तु को इतना अधिक नहीं रांध रखना चाहिए कि वह कई दिनों तक काम आवे । कौन रोज-रोज राधे, एक दिन रांध लिया और कई रोज़ तक काम में लाते रहें, यह प्रमाद की भावना पाप का कारण है । ताज़ा बनी चीज़ स्वाद युक्त एवं स्वास्थ्यकर होती है थोड़े-से श्रम से बचने के लिए उसे बासी करके खाना-खिलाना गुड़ को गोबर बनाकर खाना-खिलाना है । इससे निरर्थक पाप उत्पन्न . होता है । बहिनें प्रमाद का त्याग करें तो सहज ही इस पाप से बच सकती हैं।
SR No.010709
Book TitleAadhyatmik Aalok Part 01 and 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj, Shashikant Jha
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year
Total Pages599
LanguageHindi, Sanskrit, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Discourse
File Size28 MB
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