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________________ [७४ ] विष से अमृत 'श्रेयासि बहुविघ्नानि' अर्थात् मंगलमय कार्यों में अनेक विघ्न आया करते हैं । इस उक्ति के अनुसार साधना में भी अनेक बाधाओं का आना स्वाभाविक है, क्योंकि आध्यात्मिक साधना महान् मंगलकारी है, बल्कि कहना चाहिए कि संसार में आत्मसाधना से बढ़कर या उसके बराबर मांगलिक कार्य दूसरा नहीं है । जो साधक प्रबल वैराग्य और सुदृढ़ साहस के साथ इस क्षेत्र में अग्रसर होते हैं वे अनुकूल और प्रतिकूल बाधाओं के आने पर भी विचलित नहीं होते । बाधाएं उन्हें पराजित नहीं कर सकतीं। वे अप्रमत्त भाव से जागरण की स्थिति में रहते हैं और आने वालो बाधाओं को अपने आत्मिक सामर्थ्य के प्रकट होने में सहायक समझते हैं । आने वाली प्रत्येक विघ्नबाधा उनकी साधना को आगे ही बढ़ाती है। शास्त्रों का पारायण कीजिए तो विदित होगा कि घोर से घोर संकट आने पर भी सच्चे साधक सन्त अपने पथ से चलायमान नहीं हुए, बल्कि उस संकट को आग में तप कर दे और अधिक उज्ज्वल हो गए। जिस कष्ट की कल्पना मात्र ही साधारण मनुष्य के हृदय को थर्रा देती है, उस कष्ट को वे सहज भाव से. सहन कर सके । आखिर इस अद्भुत साहस और धैर्य का रहस्य क्या है ? किस प्रकार उनमें ऐसी दृढ़ता आ सकी ? इसके अनेक कारण हैं। उनके विवेचन का यहां अवकाश नहीं तथापि इतना कह देना आवश्यक है कि आध्यात्मिक साधना के क्षेत्र का साधक योगी इस तथ्य को भलीभाँति समझता है कि आत्मा और देह एक नहीं है । यों जानने को तो आप भी जानते हैं कि दोनों में भेद है किन्तु योगी जनों का जानना उनकी जीती-जागती अनुभूति बन जाती है । इस अनुभूति के कारण वे आत्मा को देह से पृथक् अनन्त आनन्दमय चिन्मय तत्व समझते हैं और दैहिक कष्टों को आत्मा के कष्ट नहीं समझते। दैहिक अध्यास (सुख-दुख) से अतीत हो जाने के कारण वे देह में स्थित होते हुए भी देहातीत (विदेह) अवस्था का अनुभव करते हैं।
SR No.010709
Book TitleAadhyatmik Aalok Part 01 and 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj, Shashikant Jha
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year
Total Pages599
LanguageHindi, Sanskrit, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Discourse
File Size28 MB
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