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________________ आध्यात्मिक आलोक 489 __ आचार्य भद्रबाहु स्वयं ज्ञान और चारित्र की आराधना कर रहे हैं तथा दूसरे आराधकों का पथ-प्रदर्शन भी कर रहे हैं । मुनि स्थूलभद्र प्रधान रूप से श्रुत ज्ञान को आराधना में संलग्न हैं। पहले बतलाया जा चुका है कि आचार्य भद्रबाहु से श्रुत का अभ्यास करने के लिए कई साधु नेपाल तक गए थे, परन्तु एक स्थूलभद्र के सिवाय सभी लौट आए थे । जितेन्द्रिय स्थूलभद् विघ्नबाधाओं को सहन करते हुए डटे रहे । उनके मन में निर्बलता नहीं आई । उत्साह उनका भग्न नहीं हुआ । वे धैर्य रख कर अभ्यास करते रहे। . किन्तु मन बड़ा दगाबाज़ है । इसे कितना ही थाम कर रखा जाय, कभी न कभी उच्छृखल हो उठता है । इसी कारण साधकों को सावधान किया गया है कि मन पर सदैव अंकुश रखो । इसे क्षणभर भी छुट्टी मत दो । जरा-सी असावधानी हुई कि चपल मन अवांछित दिशा में भाग खड़ा होता है । मन बड़ा धृष्ट एवं दुःसाहसी है । वह बड़ी कठिनाई से काबू में आता है और सदैव सावधान रहे बिना काबू में रहता नहीं है । स्थूलभद्र का जो मन रूपकोषा के रंगमहल में हिमालय के समान अविचल रहा और नेपाल तक जाकर विशिष्ट श्रुत के अभ्यास आदि की कठिनाइयों में भी दुर्बल न बना, वही मन लोकैषणा के मोह में पड़ कर मलिन हो गया । सातों साध्वियों के पहुंचने पर एक घटना घटित हो गई । स्थूलभद्र अपनी अपूर्ण सिद्धि को पचा न सके । वे गिरि-गुफा के द्वार पर सिंह का रूप धारण करके बैठ गए। आचार्य को जब इस घटना का पता चला तब एक नयी विचार-धारा उनके मानस में उत्पन्न हुई । उनका समुद्र के समान विशाल और गम्भीर हृदय भी क्षुब्ध हो उठा । वे सोचने लगे-'मैंने बालक को तलवार पकड़ा दी । स्थूलभद्र में जिस ज्ञान की पात्रता नहीं थी, वह ज्ञान उन्हें दे दिया । अपात्रगत ज्ञान अनर्थकारी होता है । स्थूलभद्र अपनी साधना की सफलता को प्रकट करने के लोभ का संवरण न कर सके । वे अपनी भगिनियों के समक्ष अपनी विशिष्टता को प्रदर्शित करने के मोह को न जीत सके।' स्थूलभद्र की मानसिक स्थिति आचार्य भद्रबाहु से छिपी न रही । वे उनकी आत्म-प्रकाशन की वृत्ति से आहत हुए । स्थूलभद्र की इस स्खलना से उनका गिरि सदृश हृदय भी कम्पित हो गया । वे सोचने लगे-'साधु का जीवन अखण्ड संयममय हाता है । यदि समुद्र की जलराशि भी छलकने लगी और उसमें भी बाढ़ आने लगी तो अन्च जलाशयों का क्या हाल होगा ? साधु के लिए तो अपेक्षित है कि जो
SR No.010709
Book TitleAadhyatmik Aalok Part 01 and 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj, Shashikant Jha
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year
Total Pages599
LanguageHindi, Sanskrit, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Discourse
File Size28 MB
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