SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 487
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 479 आध्यात्मिक आलोक का कामण (जादू है । योग के प्रभाव से सम्पूर्ण पापों का विनाश हो जाता है जैसे तेज आंधी से मेघों की सघन घटाएँ तितर-बितर हो जाती हैं । योग के अद्भुत प्रभाव से किसी-किसी योगी को ऐसी ऋद्धि प्राप्त हो जाती है कि उसका कफ सब रोगों के लिए औषध का काम करता है, उस के मल में और मूत्र में रोगों को नष्ट करने की शक्ति उत्पन्न हो जाती है । किसी के स्पर्श मात्र से ही रोग दूर हो जाते हैं। किसी के मल, मूत्र आदि सभी व्याधि विनाशक हो जाते हैं। योग के प्रभाव से संभिन्नश्रोतोपलब्धि भी प्राप्त होती है । जिसके प्राप्त होने पर किसी भी एक इन्द्रिय से पांचों इन्द्रियों का काम लिया जा सकता है । जीभ से सुंघा जा सकता है, आंख से चखा जा सकता है, कान से देखा जाता है, इत्यादि। इनके अतिरिक्त अन्य समस्त लब्धियां भी योग के अभ्यास द्वारा प्राप्त की जा सकती हैं। फिर भी नाना प्रकार की प्राप्त होने वाली लब्धियां योग का प्रधान फल नहीं है। अध्यात्मनिष्ठ योगी इन्हें प्राप्त करने के लिए योग की साधना नहीं करता। ये तो आनुषांगिक फल हैं । जैसे कृषक धान्य प्राप्त करने के लिए कृषि कार्य करता है किन्तु धान्य के साथ उसे भुसा (खाखला) भी मिलता है, उसी प्रकार योगी मुक्ति के लिए साधना करता है परन्तु उक्त लब्धियाँ भी अनायास ही उसे प्राप्त हो जाती हैं। ___ गौतम स्वामी 'लब्धितणा भण्डार' थे किन्तु उन्होंने अपनी किसी लब्धि का उपयोग लोकों को चमत्कार दिखलाने के लिए नहीं किया । किन्तु सभी साधक समान नहीं होते । चमत्कारजनक शक्ति के प्राप्त होने पर भी उसका उपयोग न करने का धैर्य विरले साधक में ही होता है। दुर्बल हृदय मार्ग चूक जाते हैं । वे लोकषणा के वशीभूत होकर चमत्कार दिखलाने में प्रवृत्त हो जाते हैं और यदि शीघ्र ही उस प्रवृति से विमुख न हुए तो आत्मकल्याण के मार्ग से भी विमुख हो जाते हैं । सिद्धान्त का कथन है कि लब्धि के प्रयोग से संयमचारित्र मलिन होता है। स्थूलभद्र महान साधक मुनि थे, किन्तु इस समय उनके चित्त में दुर्बलता उत्पन्न हो गई। उन्होंने विचार किया-'ये भगिनी साध्वियां मेरे दर्शन के लिए आ रही हैं । वे छोटे-मोटे अंग-उपांग श्रत को जानकर साधना कर रही हैं और दृष्टिवाद अंग के माहात्म्य को नहीं जानती हैं । क्यों न उन्हें उस महान् श्रुत का परिचय दिया जाय ।' प्रायः प्रत्येक मनुष्य में अपनी महत्ता प्रदर्शित करने की अभिलाषा होती है। स्थूलभद्र जैसे उच्चकोटि के साधक भी इससे बच नहीं पाए । .
SR No.010709
Book TitleAadhyatmik Aalok Part 01 and 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj, Shashikant Jha
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year
Total Pages599
LanguageHindi, Sanskrit, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Discourse
File Size28 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy