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________________ 470 आध्यात्मिक आलोक अभाव में आत्मा के सहज-स्वाभाविक स्वरूप का आविर्भाव नहीं होता । भगवान् ने कहा पुरिसा ! तुममेव तुम मित्तं, किं बहिया मित्तमिच्छसि। अर्थात् हे आत्मन् ! अपना सहायक तू आप ही है, अपने से. भिन्न सहायक की क्यों अभिलाषा करता है । कितना महान् आदर्श है ! प्रभु की कैसी निस्पृहता है ! दूसरे धर्मों के देव कहते हैं-'तू मेरी शरण में आ, मैं तुझे समस्त पापों से मुक्त कर दूंगा और पाप करने पर भी उसके फल से बचा लूंगा ।' कोई कहता है-'मेरी उपासना जो करेगा उसे . मैं वहिश्त में भेज दूंगा, स्वर्ग का पट्टा लिख दूंगा ।' मगर वीतराग की वाणी निराली है। उन्हें अपने भक्तों की टोली नहीं जमा करनी है, अपने उपासकों को . किसी प्रकार का प्रलोभन नहीं देना है। वे भव्य जीवों को आत्म-कल्याण की कंजी पकड़ा देना चाहते हैं, इसीलिए कहते हैं-"गौतम ! मेरे प्रति तेरा जो अनुराग है, उसे त्याग दे। उसे त्यागे बिना पूर्ण वीतरागता का भाव जागृत नहीं होगा ।" इस प्रकार की निस्पृहता उसी में हो सकती है जिसने पूर्ण वीतरागता प्राप्त करली हो और जिसमें पूर्ण ज्ञान की ज्योति प्रकट हो गई हो । अतएव भगवान् का कथन ही उनकी सर्वज्ञता, पूर्ण कामना और महत्ता को सूचित करता है । ___गौतम स्वामी का भगवान महावीर के प्रति जो शुभ राग था वह भगवान् के अन्तिम समय तक न छूट सका और परिणाम यह हुआ कि तब तक उन्हें कैवल्य की प्राप्ति भी न हो सकी । भगवान् के निर्वाण के पश्चात् ही उनका राग दूर हुआ और दूर होते ही उन्होंने अरिहन्त अवस्था प्राप्त करली । उनका राग दूर होने में एक विशेष घटना कारण बन गई । घटना इस प्रकार थी । गौतम स्वामी भगवान् का आदेश पाकर समीपवर्ती किसी ग्राम में देवशर्मा को प्रतिबोधित करने गए हुए थे। उनके लौटकर आने से पूर्व ही भगवान् का निर्वाण हो गया । जो तीस वर्ष तकं निरन्तर साथ रहा वह अन्तिम समय में बिछुड़ गया । गौतम स्वामी के हृदय को इस घटना से चोट पहुँची । उन्होंने विचार किया-'केवली होने के कारण भगवान अपने निर्वाणकाल को तो जानते थे, फिर भी चिरकाल के अपने सेवक को अन्तिम समय में पास न रहने दिया । मुझे अन्तिम समय की उपासना से वंचित कर दिया ।' यह विचार गौतम का अनुरागी मन कर रहा था और अनुराग जब प्रबल होता है तो विवेक ओझल हो जाता है । किन्तु यह विचारधारा अधिक समय तक
SR No.010709
Book TitleAadhyatmik Aalok Part 01 and 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj, Shashikant Jha
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year
Total Pages599
LanguageHindi, Sanskrit, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Discourse
File Size28 MB
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