SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 469
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ आध्यात्मिक आलोक 461 कीमत भी बढ़ जाती है । सत्पुरुष भी उसी कारीगर के समान हैं जो साधारण मानव के मानस में व्याप्त सघन अन्धकार को दूर कर देते हैं और उसमें ज्ञान की चमक उत्पन्न कर देते हैं। - प्रभु का निर्जल व्रत चल रहा था । यद्यपि वे पूर्ण वीतराग, पूर्ण निष्काम और पूर्ण कृत-कृत्य हो चुके थे, तथापि उनकी धर्मदेशना का प्रवाह बन्द नहीं हुआ था। श्रोताओं की ओर उनका ध्यान नहीं था । छमस्थ वक्ता श्रोताओं के चेहरों को लक्ष्य करके, उनके उत्साह के अनुसार ही वक्तव्य देते हैं । वक्ता को जब प्रतीत होता है कि श्रोता जानकार है, ध्यानपूर्वक वक्तव्य को सुन रहे हैं और हृदयंगम कर रहे हैं तो वह अपनी ज्ञान-गागर को उनके सन्मुख उंडेल देता है । इस प्रकार उसका वक्तव्य सामने की स्थिति पर निर्भर रहता है । किन्तु वीतराग की आत्मा में ऐसा विकल्प नहीं होता । उसकी वाणी का प्रवाह सहज भाव से चलता है । वीतराग की वाणी में अपूर्व और अदभुत प्रभाव होता है। उससे श्रोताओं का अन्तः करण स्वतः तरोताजा हो जाता है । चित्त में अनायास ही आर्द्रता आ जाती है । वीतराग की वाणी की गंगा का परमपावन, शान्तिप्रदायक, शीतल प्रवाह जब प्रवाहित होता है तो क्या सभी उसमें अवगाहन करते हैं ? संसार के सभी जीव अपने संसारताप को शान्त कर लेते हैं ? नहीं, ऐसा नहीं होता । बहुत से जीव सूखे भी रह जाते हैं । इसमें कोई आश्चर्य की बात भी नहीं है । बीज कितना ही अच्छा क्यों न हो, ऊसर भूमि में पड़कर अंकुरित नहीं होता ।यह भूमि का ही दोष समझना चाहिए. बीज का नहीं। प्रसिद्ध दार्शनिक आचार्य सिद्धसेन दिवाकर कहते हैं : __ सद्धर्मबीजवपनानंद्यकौशलस्य, यल्लोकबान्धव! तवापिऽखिलान्यभूवन । तत्रादभुतं खगकुलेष्विह तामसेसु. सूशिवो मधुकरो चरणावदाताः ।। वे कहते हैं-प्रभु तो समस्त प्राणियों के बन्धु हैं-सब के समान रूप से सहायक हैं। किसी के प्रति उनका पक्षपात नहीं है । इसके अतिरिक्त धर्म रूपी बीज को बोने में उनका कौशल भी अद्वितीय है । फिर भी धर्म बीज के लिए कोई-कोई भूमि ऊसर साबित होती है, जहां वह बीज अंकुरित नहीं होता । मगर यह कोई अद्भुत बात नहीं है। सूर्य अपनी समस्त किरणों से उदित होता है और लोक में प्रकाश की उज्ज्वल किरणें विकीर्ण करता है, फिर भी कुछ निशाचर प्राणी ऐसे होते हैं। जिनके आगे उस समय भी अधेरा छाया रहता है । ऐसा है तो इसमें सूर्य का क्या अपराध है?
SR No.010709
Book TitleAadhyatmik Aalok Part 01 and 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj, Shashikant Jha
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year
Total Pages599
LanguageHindi, Sanskrit, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Discourse
File Size28 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy