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________________ 440 — आध्यात्मिक आलोक चाहिए और ग्रीष्मकाल में पतले, यह तो ठीक है, मगर कई कई पोशाकें गरम कपड़ों की होने पर भी कहीं कोई नयी डिजाइन दिखाई दी और तबियत मचल गई। उसे खरीद लिया । इस प्रकार गरम कपड़ों से पेटियां भरली । मलमल आदि के कपड़ों की पेटियां अलग भरी हुई हैं । यह सब अनावश्यक संग्रह है। मनुष्य के दो ही पैर होते हैं और उनकी सुरक्षा के लिए एक जोड़ा जूता पर्याप्त है । मगर सेठ साहब और बाबू साहब प्रतिदिन वही जूता पहनें, प्रातःकाल पहना हुआ जूता सांयकाल पहनें तो बडप्पन कैसे सुरक्षित रहेगा ? अतएवं पैरों की सुरक्षा के लिए भले एक ही जोड़ा जूता चाहिए मगर बड़प्पन की सुरक्षा के लिए कई जोड़ियां चाहिए। आज लोगों की ऐसी दृष्टि बन गई है। कपड़ा और जता उपयोगिता के क्षेत्र से निकल कर श्रृंगार और बड़प्पन के साधन बन गए हैं । इस दृष्टि भेद का ही परिणाम है कि लोग बिना आवश्यकता के भोगोपभोग की वस्तुओं का संग्रह करते हैं और दूसरों के समक्ष अपना बड़प्पन दिखलाते हैं । इससे गृहस्थों का जीवन सरल स्वाभाविक न रहकर एकदम कृत्रिम और आडम्बरपूर्ण हो गया है। जहां देखो वहीं दिखावट है । शान-शौकत के लिए लोग आडम्बर करते हैं । प्रत्येक व्यक्ति अपने आपमें जो है, उससे अन्यथा ही अपने को प्रदर्शित करना चाहता है । अमीर अपनी अमीरी का ठसका दिखलाता है । गरीब उसकी नकल करते हैं और अपने सामर्थ्य से अधिक व्यय करके सिर पर ऋण का भार बढ़ाते हैं । इन अवास्तविक आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए अनेक प्रकार के अनैतिक उपायों का अवलम्बन लेना पड़ता है । इस कारण व्यक्ति, व्यक्ति का जीवन दूषित हो गया है और जब व्यक्तियों का जीवन दुषित होता है तो सामाजिक जीवन निर्दोष कैसे हो सकता है ? ____ कपड़ों और जूतों की फसल आने का कोई नियत समय नहीं है । वे बारहों मास बनते रहते हैं और जब आवश्यकता हो तभी सुलभ हो सकते हैं । फिर भी लोग सन्दुक भर कर कपड़े संग्रह करते और जूते इतने अधिक कि सजा कर रख दिये जायं तो मोची की एक खासी दुकान बन जाय; यह भोगोपभोग के साधनों का वृथा संग्रह निरर्थक आरम्भ और परिग्रह का कारण है। कई बार व्यापारिक दृष्टि से भी वस्तुओं का संग्रह किया जाता है । खाद्यान्नों का संग्रह भी किया जाता है । व्यापारी वर्ग के लिए एक सीमा तक यह संग्रह-वृत्ति क्षम्य हो सकती है, पर सीमा का उल्लंघन करके किये जाने वाले संग्रह से अनेक अनर्थ उत्पन्न हो जाते हैं । किसी वर्ग को यह नहीं भूलना चाहिए कि वह जो भी व्यापार-धन्धा करता है, वह समाज एवं देश. को हानिकारक नहीं होना चाहिए।
SR No.010709
Book TitleAadhyatmik Aalok Part 01 and 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj, Shashikant Jha
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year
Total Pages599
LanguageHindi, Sanskrit, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Discourse
File Size28 MB
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