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________________ 436 आध्यात्मिक आलोक और इस प्रकार बहुसंख्यक ग्रन्थ पढ़ लिए गए तो भी उनसे अभ्यास का प्रयोजन पूर्ण नहीं होता । इस प्रकार पढ़ने वाला दीर्घ काल में भी विद्वान नहीं बन पाता। कई साधु-सन्त यह सोचते हैं कि इस समय पढ़ाने वाले का सुयोग मिला है तो अधिक से अधिक समय लेकर अधिक से अधिक ग्रन्थ .बांच कर समाप्त कर दें। बाद में उन पर चिन्तन करेंगे, उनका अभ्यास कर लेंगे और पक्का कर लेंगा किन्तु इस प्रकार की वृत्ति से अधिक लाभ नहीं होता । जल्दी-जल्दी में जो सीखा जाता है वह धारणा के अभाव में विस्मृति के अंधकार में विलीन हो जाता है और जो समय उसके लिए लगाया गया था वह वृथा चला जाता है । अंतएव सुविधा के अनुसार जो भी अध्ययन किया जाय वह ठोस होना चाहिए। जितना-जिंतना पता जाय उतना ही उतना नवीन सीखना चाहिए। ऐसा करने से अधिक लाभ होता है। विद्वानों में यह कहावत प्रचलित है कि थोड़ा-थोड़ा सीखने वाला थोड़े दिनों में और बहुत बहुत सीखने वाला बहुत दिनों में विद्वान बनता है । इस कहावत में बहुत कुछ तथ्य है । जैसे एक दिन में कई दिनों का भोजन कर लेने का प्रयत्न करने वाले को लाभ के बदले हानि उठानी पड़ती है, उसी प्रकार बहुत-बहुत पढ़ लेने किन्तु पर्याप्त चिन्तन-मनन न करने से और कण्ठस्थ करने योग्य को कण्ठस्थ न करने से लाभ नहीं होता । अतः ज्ञानाभ्यास में अनुचित उतावली नहीं करनी चाहिए। मुनि स्थूलभद्र ने अधैर्य को अपने निकट न फटकने दिया:। वे स्थिर चित्त से वहीं जमे रहे और अभ्यास करते रहे। उन्होंने विचार किया गुरुजी के आदेश से जिज्ञासु होकर मैं यहां आया हूँ' अतएव वाचना देने वाले की सुविधा के अनुसार ही मुझे ज्ञान ग्रहण करना चाहिए। . . . . . सुपात्र समझकर भद्रबाहु ने स्थूलभद्र को अच्छी शिक्षा दी शेष साधु . संभूतिविजय के पास चले गए । उनके चले जाने पर भी स्थूलभद्र निराश या उदास नहीं हुए । सध्ये जिज्ञासु होने के कारण उन्होंने कष्टों की परवाह नहीं की। उचित आहार आदि प्राप्त न होने पर भी उन्होंने अपना अध्ययन चालू रखाः, सात वाचनाएं जारी रहीं। चौदह पूर्वो के ज्ञाता श्रुतकेवली केवली के समकक्षः माने जाते हैं । स्थूलभद्र को ऐसे महान् गुरु प्राप्त हुए। उन्होंने अपना अहोभाग्य माना और ज्ञान के अभ्यास में अपना मन लगाया। यदि इस लोक और परलोक को सुखमय बनाना है तो आप भी ज्ञान का दीपकजंगाइएं । हमें उन महान तपस्वियों से यही सीख ग्रहण करनी चाहिए जिन्होंने श्रुत की रक्षा करने में अपना बहुमूल्य जीवन लगाया है।
SR No.010709
Book TitleAadhyatmik Aalok Part 01 and 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj, Shashikant Jha
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year
Total Pages599
LanguageHindi, Sanskrit, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Discourse
File Size28 MB
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