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________________ 427 आध्यात्मिक आलोक जितना अहित करता है, उससे अधिक अहित लिखने वाला करता है । अतः बोल कर या लिख कर धर्म का लाभ देना ही हितकर है। कहा है बूट डासन ने बनाया, हमने एक मजमूं लिखा । मुल्क मैं मजमू न फैला, और जूता चल पड़ा । किसी देश का राजदूत या राजनायक कोई गलत बात कह जाय तो सारे देश में आग लग जाती है । आग लगाने और अमृत बरसाने की शक्ति वाणी में है। अगर वाणी अमृत के बदले हलाहल उगलने लगती है तो समाज, देश और विश्व का घोर अहित हो जाता है । भगवान महावीर कहते हैं-"हे साधक ! अपनी वाणी का सदुपयोग करना है तो कर मगर अनर्थ-वाणी का उपयोग तो न कर । यह न भूल कि वाणी और उसमें भी सार्थक वाणी की शक्ति महान पुण्य के योग से प्राप्त होती है । पुण्य के प्रताप से प्राप्त शक्ति का पाप के उपार्जन में प्रयोग करना बुद्धिमत्ता नहीं है।" वाणी को पाप के मार्ग में लगाया गया तो इससे पेट भी नहीं भरा और कुछ लाभ भी नहीं हुआ, मगर पाप का बन्ध तो हो ही गया । अज्ञानी वाणी का व्यभिचार करता है और ज्ञानी उसका ठीक उपयोग करता स्व और पर में ज्योति जगाने वाला ज्ञान श्रुतज्ञान है । महर्षियों ने श्रुत का संकलन अतीव परिश्रम से किया और इस महान कार्य के लिए अपने आराम को भी हराम समझा था । यह श्रुत संरक्षण का कार्य महावीर स्वामी के निर्वाण के दो सौ वर्ष बाद आर्य संभूतिविजय के समय में हुआ । गंगा की धारा के समान श्रुत की धारा कभी बन्द नहीं हुई। है साधको । जिस प्रकार आकाश में सूर्य और चन्द्र शाश्वत हैं, उसी प्रकार श्रुत भी सदैव रहेगा परन्तु उसका प्रचार और प्रसार होगा किसके बल पर ? पुरुषार्थ के बल पर ही । संघ ने निर्णय किया-"यदि भद्रबाह वहीं रह कर आगम सेवा का लाभ दें तो कोई आपत्ति नहीं। इससे दोनों प्रयोजनों की पूर्ति हो सकेगी । उनका महाप्राण ध्यान भी सम्पन्न हो जाएगा और श्रत की वाचना भी हो जाएगी ।" भद्रबाहु ने आगम की सात वाचनाएं देने का वचन दिया । अतः संघ ने अपने श्रमण वर्ग में से जो विशिष्ट जिज्ञासु थे, ज्ञान ग्रहण करने की जिनकी भावना तान थी, उन्हें आह्वान किया । पछा गया कि कौन भद्रबाह स्वामी के पास जाना चाहता है ? श्रुतसेवी सन्तों में स्थूलभद्र का पहला नम्बर आया ।
SR No.010709
Book TitleAadhyatmik Aalok Part 01 and 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj, Shashikant Jha
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year
Total Pages599
LanguageHindi, Sanskrit, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Discourse
File Size28 MB
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