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________________ 35 आध्यात्मिक आलोक घृणा पाप से हो पापी से, कभी नहीं लवलेश । भूल सुझाकर प्रेम भाव से, करो उसे पुण्येश ।। यही है महावीर सन्देश । संतों के आश्रय में, नहीं बोलने की स्थिति में भी उनके मूक उपदेश चलते रहते हैं । तप और त्याग के वातावरण में त्यागी पुरुषों के जीवन का मूक प्रभाव लोगों पर पड़ता ही रहता है और उनकी जीवनचर्या से भी प्रेरणा मिलती रहती है। जैसे पुष्पोद्यान का वातावरण मन को प्रफुल्लित करने में परम सहायक होता है, वैसे संत संगति भी आत्मोत्थान में प्रेरणादात्री मानी गई है। संतो की वाणी को सुरक्षित रखने के लिए हम सब अपने पूर्वाचार्यों के प्रति अत्यन्त ऋणी हैं | यशोभद्र एक ऐसे ही आचार्य हुए हैं। भगवान महावीर के पश्चात् आपने श्रुतज्ञान के बल पर प्रक्चन तथा धर्म शासन का रक्षण कर जन समुदाय का विराट उपकार किया । यशोभद्र के चालीस शिष्यों मे संभृतिविजय अग्रगण्य थे, जिन्होंने ४२ वर्ष की अवस्था में दीक्षा ली तथा राजयोगी भर्तहरि की तरह आदर्श भुक्तभोगी संत निकले । राजा भर्तृहरि ने पिंगला सदृश अद्वितीय सुन्दरी रानी एवं राज्य सुख पाकर भी असलियत समझ कर क्षण भर में सबका परित्याग कर दिया। सांसारिकता उन्हें अपने बन्धन में नहीं डाल सकी और मोह की महिमा गरिमा सब उनके त्याग के सामने ढ़ीली पड़ गई। जिस समय भर्तृहरि राज्यपद एवं सुख को अशांति का कारण समझकर तिलांजलि देने लगे तो मन्त्रियों ने उन्हें समझाया कि आप सहसा राज्यपद क्यों छोड़ रहे हैं ? आपके मार्ग में जो बाधा हो उसे ही हटाकर आप सर्वथा निर्विघ्न क्यों नहीं हो जाते । इस पर भर्तृहरि ने कहा-भोग सब रोग का कारण है |शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गन्ध ये सब सुख के साधन नहीं हैं, वरन् दुःख की सामग्नियां हैं। इन्हीं के द्वारा इन्द्रियां मनुष्य को दुःख पहुँचाती हैं तथा मन को अशांत बनाती हैं । भूख के रोग में भोजन का मूल्य है। किन्तु यदि मूल्यवान भोजन अधिक मात्रा में खा लिया जाय तो निश्चय ही हानिकारक होगा। इसलिए कबीर ने कहा है - कबिरा काया कुकरी, तन से लिवी लगाय । पहले टुकड़ा डालिये, पीछे हरि गुण गाय ।। भर्तृहरि ने भी यह कहते हुए कि -. "सर्व वस्तु भेयान्चितं, भुवि नृणां वैराग्यमेवाभयम्"
SR No.010709
Book TitleAadhyatmik Aalok Part 01 and 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj, Shashikant Jha
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year
Total Pages599
LanguageHindi, Sanskrit, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Discourse
File Size28 MB
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