SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 423
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ आध्यात्मिक आलोक 415 ___हां, तो भद्रबाहुस्वामी नेपाल की तराई में थे । दो साधु उन्हें बुलाने के लिए भेजे गए । दोनों सन्त उनके चरणों में जाकर प्रणत हुए । तत्पश्चात् उन्होंने निवेदन किया-"भगवन् ! संघ पाटलीपुत्र में एकत्र हुआ है और श्रुत के संकलन का कार्य किया जा रहा है । किन्तु आपके बिना श्रुत संकलन पूर्ण रूप से सम्पन्न नहीं हो रहा है, अतएव आपकी वहां आवश्यकता अनुभव की जा रही है । आप अवश्य पधारें । संघ आपकी प्रतीक्षा कर रहा है ।" आचार्य भद्रबाहु ने उत्तर दिया-"संघ का मैं अंग हूँ, सेवक हूँ | संघ का मुझ पर अपार उपकार है, किन्तु मैंने महाप्राण ध्यानयोग प्रारम्भ किया है । यह निवेदन आप संघ के समक्ष कर दीजिएगा ।" महाप्राण ध्यान की क्या विधि है, क्या भूमिका, परिपाटी या स्वरूप है ? इसका उल्लेख देखने में नहीं आता, किन्तु 'महाप्राण' शब्द के आधार पर ही कुछ कल्पना की जा सकती है । जिस ध्यान के द्वारा प्राण को दीर्घ किया जाय प्राणवायु पर विजय प्राप्त की जाय, सम्भवतः वह महाप्राण ध्यान कहलाता हो । जैन परम्परा में हठ योग को प्रश्रय नहीं दिया गया है । अध्यात्म की प्रधानता होने से वहाँ राजयोग ही उपादेय माना गया है । वस्तुतः हठ योग रोग के उन्मूलन की दवा नहीं है, उससे रोग को सिर्फ दबाया जा सकता है । राज योग उस औषध के समान है जो रोग को समूल नष्ट कर देती है । तो आचार्य भद्रबाहु ने उत्तर दिया-"मैं इस समय पाटलीपुत्र के लिए प्रस्थान करने में असमर्थ हूँ, क्योंकि मैं महाप्राण ध्यान प्रारम्भ कर चुका हूँ। उसे अपूर्ण छोड़ देना उचित नहीं होगा, ऐसा श्री संघ को निवेदन करना ।" आचार्य का उत्तर सुनकर सन्त निराश होकर लौट गए । पाटलीपुत्र पहुँच कर उन्होंने संघ के समक्ष बतलाया-"हम दोनों महामुनि भद्रबाहु की सेवा में पहुँचे । उनको संघ का आदेश कह सुनाया । उत्तर में उन्होंने निवेदन किया है कि वे महाप्राण आरम्भ कर चुके हैं । अतएव उपस्थित होने में असमर्थ हैं।" आचार्य सम्भूतिविजय ने महामुनि भद्रबाहु का उत्तर सुनकर संघ के साथ विचार-विमर्श किया । सोचा गया-"श्रुत की रक्षा शासन की रक्षा है । आज भगवान तीर्थकर या केवली हमारे समक्ष नहीं हैं | तीर्थकर की देशना, जो श्रुत के रूप में ग्रथित की हुई है, हमारा सर्वस्व है, एकमात्र निधि है । उसके अभाव में शासन टिक नहीं सकेगा । वह छिन्न-भिन्न हो जाएगा । संघ श्रुत पर ही टिका है और भविष्य के संघ के लिए भी यही एकमात्र आधार रहेगा । उधर आचार्य भद्रबाहु ने ध्यान
SR No.010709
Book TitleAadhyatmik Aalok Part 01 and 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj, Shashikant Jha
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year
Total Pages599
LanguageHindi, Sanskrit, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Discourse
File Size28 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy