SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 421
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ आध्यात्मिक आलोक 413 झकता है, बादशाह की चापलूसी करता है । मगर जो पूरी तरह निस्पृह बन गया है और आत्मिक सम्पत्ति से सन्तुष्ट होकर बाह्य वैभव को कंकर-पत्थर की तरह समझता है, उसके लिए राजा-रंक में कोई भेद नहीं रहता । सध्ये साधु के विषय में भगवान् महावीर कहते हैं जहा पुण्णस्स कत्था, तहा तुच्छस्स करपद । जहा तुच्छस्स कत्थइ, तहा पुग्जत कपड़। यह है जीता-जागता समभाव । इसे कहते हैं निस्पृहभावना । साधु जब धर्मदशना करता है तो अमीर-गरीब का भेद नहीं करता । जैसे राजा को धर्मोपदेश करता है वैसे ही रंक को और जैसे रंक को वैसे ही राजा को । उसकी दृष्टि में सभी प्राणी समान हैं। जब उस फकीर ने बादशाह के आने की बात सुन करके भी झोंपड़ी का दरवाजा न खोला तो बादशाह ने छिद्र में से देखकर सलाम किया । राजा फकीर को देखकर पहचान गया कि यह तो वही खोजा है। बादशाह बोला-"मियां ! तुम तो मक्का गए थे ?" फकीर ने उत्तर दिया-"जी हां, जब ज्ञान नहीं था पक्का !" फिर बादशाह ने कहा-"मियां ! कब से पांव फैलाये ?" फकीर ने कहा-"जब से हाथ सिकोड़े।" बादशाह-"क्या कुछ पाया ?" फकीर-"जी हां, पहले मैं तेरे आता था, अब तू मेरे आया ।" बादशाह-"हमें भी कुछ बता ।" • फकीर-"मत करना कोई खता । दान दे, सान्त्वना दे. झटका मत मार, अन्यथा तेरा सफाया हो जाएगा, कहा है "यों कर, यों कर, यों न कर, यों कीना यों होय । कहे औलिया देखलो, खुदा न बाहर कोय ।।" यह तत्व मुझे मिला है और मुझे आत्म-सन्तोष है कि मक्का शरीफ अद यहीं दीख़ रहा है।" तात्पर्य यह है कि जो साधक अन्तर्मुखी हो जाता है और अपने मन में अपनी आत्मा में ही लीन कर लेता है, उसे अपने अन्दर ही भगवत्स्वरूप दे कि होने लगते हैं। अहिंसा और सत्य उसके जीवन में उतर आते हैं।
SR No.010709
Book TitleAadhyatmik Aalok Part 01 and 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj, Shashikant Jha
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year
Total Pages599
LanguageHindi, Sanskrit, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Discourse
File Size28 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy