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________________ 409 आध्यात्मिक आलोक सम्यग्दर्शन का प्रभाव बड़ा ही विलक्षण है । जब तक सम्यग्दर्शन प्राप्त नहीं होता तब तक विपुल से विपुल ज्ञान और कठिन से कठिन क्रिया भी मोक्ष का कारण नहीं बनते । वह ज्ञान मिथ्या ज्ञान और चारित्र मिथ्या चारित्र होता है और वह संसार का ही कारण भूत है । मोक्ष की प्राप्ति में वह सहायक नहीं होता । जब आत्मा में सम्यग्दर्शन का अलौकिक सूर्य उदित होता है तब ज्ञान और चारित्र सम्यक् बन जाते हैं और वे आत्मा को मोक्ष की ओर प्रेरित करते हैं । सम्यग्दर्शन कदाचित् थोड़ी-सी देर के लिए अन्तर्मुहुर्त मात्र काल के लिए ही प्राप्त हो और फिर नष्ट हो जाय तो भी आत्मा पर ऐसी छाप अंकित हो जाती है कि उसे अर्द्धपुदगलपरावर्तन काल में मोक्ष प्राप्त हो ही जाता है । सम्यग्दर्शन वह आलोक है जो आत्मा में व्याप्त मिथ्यात्व अन्धकार को नष्ट कर देता है और आत्मा को मुक्ति की सही दिशा और सही राह दिखलाता है। आनन्द ने सुदृष्टि प्राप्त करके सम्यक्त्व सामायिक, श्रुतसामायिक और देश विरति सामायिक प्राप्त की । उसकी बहिदृष्टि नष्ट हो गई वह अन्तर्मुखी हो गया । भगवान उसे व्रती जीवन में आने वाली बाधाएं बतला रहे हैं जिनसे बचकर वह निर्मल रूप से व्रतों का पालन कर सके । सातवें व्रत का स्पष्टीकरण करते हुए वाणिज्य सम्बन्धी महाहिंसा से बचने का उपदेश दिया, बतलाया कि कोल्हू, ची, चक्की, आदि यंत्रों को चलाने की आजीविका करना श्रावक के लिए उचित नहीं है क्योंकि यह महारम्भी कार्य है । यन्त्रों द्वारा उत्पादित वस्तुओं के उपयोग से भी श्रावक यथासंभव अपने आपको बचावे तो यंत्रों को प्रोत्साहन न मिले और यन्त्र के प्रयोग से होने वाली अनेक हानियों से बचाव हो सके किन्तु आज की विषम स्थिति में इन यन्त्रों के कारण गृहस्थ अल्पारंभी से महारंभी बन जाता है । श्रावक को कम से कम महारंभ और महाहिंसा से तो बचना ही चाहिये । यदि वह महारंभ और तज्जनित महाहिंसा के कार्य करता रहा और लालच में पड़ा रहा तो वीतराग भगवान का अनुयायी कहला कर भी उसने क्या लाभ प्राप्त किया ? . (१२) निल्लछण कम्मे ( निलछित कर्म)-जो पशुओं का पालन करता है उसको नर पशुओं के खस्सी करने एवं नाथने का काम भी पड़ जाता है । इस विषय में यह बात ध्यान में रखने योग्य है कि श्रावक को ऐसा करने की आजीविका नहीं करनी चाहिये। ऐसे हल्के और हिंसाकारी कार्यों से वृत्ति चलाना श्रावक के लिए उचित एवं शोभास्पद नहीं है । जिन्होंने सुदृष्टि प्राप्त नहीं की है और जो विरति से दूर हैं, वे भले ही अज्ञानवश चाहें जैसे धन्धे करें परन्तु श्रावक ऐसा नहीं करे ।
SR No.010709
Book TitleAadhyatmik Aalok Part 01 and 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj, Shashikant Jha
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year
Total Pages599
LanguageHindi, Sanskrit, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Discourse
File Size28 MB
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