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________________ 396 आध्यात्मिक आलोक जो चीज विष के नाम से अधिक प्रसिद्ध है या जो विष एकदम प्राणनाश करता है, उससे लोग भय खाते हैं, चौंकते हैं किन्तु तमाखू विष ऐसा विष है जो धीरे-धीरे जीवन को नष्ट करता है और जिनका जीवन नष्ट होता है उन्हें ठीक तरह पता नहीं चलता। इस कारण लोग उसके सेवन को बुरा नहीं समझते । अधिक से अधिक १०-१२ रोटियों से मनुष्य का पेट भर जाता है, मगर वीडी और सिगरेट पीते-पीते सन्तोष नहीं होता। कई लोग अनेक बंडल या पैकेट बीड़ी-सिगरेट के पीकर समाप्त कर देते हैं। मगर इस प्रकार तमाखू के सेवन से शरीर विषैला हो जाता है। वह बिच्छू का भी बाप बन जाता है। जिस मनुष्य का शरीर तमाखू के विष से विषैला हो जाता है उसका प्रभाव उसकी सन्तति के शरीर पर भी अवश्य पड़ता है। अतएव तमाखू का सेवन करना अपने ही शरीर को नष्ट करना नहीं है, बल्कि अपनी सन्तान के शरीर में भी विष घोलना है। अतएव सन्तान का मंगल चाहने वालों का कर्तव्य है कि वे इस बुराई से बचें और अपने तथा अपनी सन्तान के जीवन के लिये अभिशाप रूप न बनें। कहते हैं संखिया का सेवन करने वाले पर बिच्छू का असर नहीं पड़ता, यहां तक कि सर्दी-जुकाम उसे नहीं होता। उसके लिये कोई दवा कारगर नहीं होती। उसका बीमार होना ही मानों अन्तिम समय का आगमन है। उसे कोई औषध नहीं बचा सकती। यहां तक द्रव्य-विष के विषय में कहा गया है, जिससे प्रत्येक विवेकवान् गृहस्थ को बचना चाहिये। किन्तु पूर्ण त्यागी को तो भाव-विष से भी पूरी तरह बचने का निरन्तर प्रयास करना है। उनका जीवनत्याग एवं तपश्चरण से विशुद्ध होता है, अतएव वे द्रव्य-विष का ही सेवन नहीं करते, पर भाव-विष से भी मुक्त रहते हैं । काम-क्रोध आदि विकार भाव-विष कहलाते हैं। द्रव्य-विष जैसे शरीर को हानि पहुंचाता है, उसी प्रकार भाव-विष आत्मा को हानि पहुंचाता है। द्रव्य-विष से मृत्यु भी हो जाये तो एक बार होती है किन्तु भाव-विष पुनः-पुनः जन्म-मरण का कारण बनता है। द्रव्य-विष द्रव्य प्राणों का घात करता है जबकि भाव-विष आत्मा के ज्ञानादि भावप्राणों का विघातक होता है। आत्मा अनादि काल से अब तक जन्म-जरा-मरण की महावेदना से मुक्त नहीं हो सका, इसका एकमात्र कारण भाव-विष है। यह भाव-विष घोर दुःख रूप है और सभी अनर्थों का कारण है। अतएव द्रव्य-विष से भाव-विष कम गर्हित और अनर्थकारी नहीं है ।
SR No.010709
Book TitleAadhyatmik Aalok Part 01 and 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj, Shashikant Jha
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year
Total Pages599
LanguageHindi, Sanskrit, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Discourse
File Size28 MB
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