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________________ आध्यात्मिक आलोक 389 ___ भंग भी मदिरा की छोटी बहिन है । नासमझ लोग ज्ञान और उपशम का रस नहीं पिला कर उत्सवों के अवसर पर उन्मत्त बनाने वाला रस पिलाते हैं । मदिरा जैसी नशीली वस्तुएं थोड़ी-सी तरी पहुँचा कर भीतर का रस चूस लेती हैं । मजदूरों और पिछड़े वर्ग के लोगों की स्थिति इसी कारण खराब होती है कि वे शराब जैसी चीजों का उपयोग करते हैं । इन मादक पदार्थों के चंगुल में पड़ कर वे अपने सारे परिवार को विनाश की ओर ले जाते हैं । पहले तो लोग कुतूहल से प्रेरित होकर नशीली चीज का सेवन करते हैं, मगर धीरे-धीरे वह अपने अधीन बना लेती है । अतएव समझदार मनुष्य किसी के आग्रह से अथवा कुतूहल से भी मादक द्रव्य के सेवन की शुरुआत नहीं करे। भगवान महावीर ने कहा-"हे मानव ! तुझे जो बुद्धि मिली है वह नष्ट करने के लिए नहीं । अतएव तु ऐसा रस ले और दे कि जिससे तेरा तथा समाज का कल्याण हो ।" __ मुनि स्थूलभद्र ने स्वयं ज्ञान का अमीरस प्राप्त करके वेश्या को दिया । उस रस के आस्वादन से वेश्या का वेश्यापन जाता रहा । उसमें प्राविका के रूप का प्रादुर्भाव हुआ । अब वही वेश्या अपने काम-रस को त्याग कर भूले-भटके तपस्वी को सन्मार्ग पर ला रही है । उसने ऐसे अद्भुत कौशल के साथ तपस्वी के जीवन में परिवर्तन किया कि तपस्वी भी दंग रह गया । तपस्वी जब होश में आए तो वोले-"रूपकोषे ! तू ने मुझे तार दिया । मोह और अज्ञान का अन्धकार मेरी दृष्टि के सामने छा गया था और उसमें मेरा चित्त भटक गया था । तू ने आलोक-पुंज वन कर सच्ची राह दिखला दी । तू ने चिकित्सक की तरह मेरे मन की व्याधि को दूर कर दिया | अब मेरे मन का मल धुल गया है । तेरे उपकार से मैं धन्य हो गया । मेरे गिरते जीवन को त ने बचा लिया । मैं नहीं समझ पाया कि महामुनि स्थूलभद्र ने यहां क्या साधना की थी? चतुर चिकित्सक पहले विरेचन की दवा देकर फिर रोगनाशक दवा देता है, इसी प्रकार तू ने पहले मुझे भटका कर बाद में औषध दी है।" इस प्रकार तपस्वी ने रूपकोषा के प्रति कृतज्ञता प्रकट की, रूपकोषा ने उत्तर में कहा-"मुनिवर ! मैंने अपने कर्तव्य का पालन किया है, इससे अधिक कुछ भी नहीं किया । महामुनि स्थूलभद्र ने ही मुझे यह सीख दी थी । उसी का यह परिणाम है। इसमें मेरी किचित् भी बड़ाई नहीं है । स्थूलभद्र ने मेरे जीवन को मोड़ दिया और उन्होंने ही मुझे सेवा करने का यह तरीका सिखलाया है । उन्हीं के शुभ समागम से मैंने धर्म का मंगलमय पथ पाया है और मैं श्राविका धर्म का पालन कर
SR No.010709
Book TitleAadhyatmik Aalok Part 01 and 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj, Shashikant Jha
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year
Total Pages599
LanguageHindi, Sanskrit, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Discourse
File Size28 MB
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