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________________ 371 आध्यात्मिक आलोक . अनिष्ट और कटु प्रसंग आते हैं और आते रहेंगे, ये 'पर' घर के निमित्त हैं, इनमें बहना नहीं चाहिए । ऐसे अवसरों पर संयमशीलता से काम लेना ही उचित है। असंयमशील बनने से अधःपतन होता है। सिंहगुफावासी मुनि संयम की परिधि से बाहर निकले तो उनकी साधना दूषित हुई । रूपकोषा ने जब रत्नकम्बल पैर पोंछ कर एक तरफ फेंक दिया तो मुनि ने इसे अपना घोर अपमान समझा और रूपकोषा को फूहड़ समझा । वे सोचने लगे-कितने परिश्रम से कंवल प्राप्त किया गया था और इसको यह दुर्दशा हुई।' उनके मन का नाग फुफकारने लगा। राह पर पड़ा सर्प यदि जग जाय तो राही को आगे नहीं बढ़ने देता । तपस्वी इसे सहन नहीं कर सके और बोल उठे-"रूपकोषा! मैंने तेरी चतुराई की अनेक कथाएं सुनी थीं । समझता था कि तू विवेकशीला है, व्यवहारकुशल है । किन्तु मेरा सुनना और समझना सब मिथ्या सिद्ध हुआ | कल्पना नहीं की थी कि तेरे भीतर अविवेक का इतना अतिरेक है। क्या तेरी बुद्धि मारी गई है! तुझे क्या पता है कि इस कम्बल के लिए मैंने कितना कष्ट सहन किया है ! कितनी मेहनत और कठिनाई से यह वहुमूल्य और दुर्लभ वस्तु प्राप्त की है। मगर तूने इसका इस प्रकार दुरुपयोग किया। मैं समझ गया-तेरे पास रूप है, गुण नहीं है। कहा भी है ना चम्पा ना मोगरा, रे भवरी ! मत भूल । रूप सदा गुण वाहिरा, रोहीड़ा का फूल ।। रोहीड़ा की लकड़ी काम में आती है पर उसके फूल में सुगन्ध नहीं होती। पलाश का फूल भी ऐसा ही होता है । देखने में बहुत सुन्दर मगर सौरभहीन !" । रूपकोषा के प्रति मुनि के मन में जो आकर्षण था, वह कम हो गया । अनुराग में फीकापन आ गया.। इधर रूपकोषा ने भी समझ लिया - 'अब उपयुक्त । समय आ गया है मुनि को सन्मार्ग पर लाने का ।' जमीन जब खूब तप जाती है और ऊपर से पानी गिरता है तब चतुर . किसान बीज वपन करता है । उपयुक्त समय पर किया हुआ कार्य सफल होता है और उसके लिए अधिक प्रयास भी नहीं करना पड़ता । अनुपयुक्त समय पर कार्य करने से प्रयास वृथा हो जाता है । रूपकोषा की एक मात्र अभिलाषा मुनि को संयमनिष्ठ बनाने की थी। उनके मन में जो अभिमान का विष घुल गया था, उसे वह निकाल फेंकना चाहती थी। अब तक की घटनाएं उसो की भूमिका थी. ।
SR No.010709
Book TitleAadhyatmik Aalok Part 01 and 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj, Shashikant Jha
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year
Total Pages599
LanguageHindi, Sanskrit, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Discourse
File Size28 MB
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