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________________ 364 आध्यात्मिक आलोक ___ इस व्यवस्था का दूसरा लाभ है वर्ग संघर्ष न होना । ब्राह्मण अध्यापन कार्य करे, अन्य आजीविका न करे, व्यापार-वाणिज्य में हाथ न डाले तो पारस्परिक संघर्ष नहीं होगा। सभी वर्ग अपना-अपना पैत्रिक धंधा करें तो समाज में शान्ति बनी रहती है और उनके पारस्परिक व्यवहार में मधुरता रहती है। श्रीमन्त वैश्य, खान खोदने का भी काम अपने हाथ में ले लें तो खान खोदने का धंधा करने वाले वर्ग के साथ उनका सम्बन्ध मधुर नहीं रह सकता। तीसरा लाभ यह है कि पितृ परम्परा से चले आए धंधे को अपनाने से धधै सम्बन्धी कौशल की वृद्धि होती है । लुहार का लड़का चपन से ही अपने घर के धंधे को देखता-देखता और अभ्यास करता-करता उसमें विशेष कुशल बन जाता है। वणिक पुत्र अगर उस धंधे को अपना ले तो उतना निष्णात् नहीं हो सकता। . अल्प भोगी श्रावक बिना कटुता के महावीर के मार्ग पर चल कर इहलोक-परलोक सम्बन्धी लाभ प्राप्त कर सकता है । किन्तु जो तृष्णा और लोभ की अधिकता से ग्रस्त है और अर्थ को अनर्थ न समझ कर उसी को एकमात्र परमार्थ मानता है वह वीतराग के उपदेश पर किस प्रकार चल सकता है ? प्रजापति लम्वकर्ण ( गधा) पर भांड या अन लाद कर ले जा रहा हो और लम्बकर्ण को कहीं रास्ते में श्मशान की राख दीख जाय तो वह प्रजापति की हानि की चिन्ता नहीं करके एक बार उसमें लोट कर खेल कर ही देगा। अरे उस गधै को क्या हंसते हो, अपने को हंसो जो वीतराग के उपासक और वीतरागवाणी के भक्त कहलाते हुए भी विषय-कषाय की राख में लोट लगा रहे हो। उत्तम जाति का अश्व कदापि ऐसा नहीं करता । जो मानव मखमलं के गद्दे रूपी स्वरूप-शय्या में रमण न करके विषय-कषाय की राख में लोटता है, वह महिमा का पात्र नहीं होता, प्रशंसनीय नहीं गिना जाता । मोहान्ध मानव मोह की तीव्रता के कारण अश्व का भाव भुला कर लम्बकर्ण (गर्दभ ) के भाव में आ जाता है । ऐसा मोहान्ध पुरुष सम्यग्ज्ञान के प्रकाश (सर्चलाइट) से या सत्संगति से हो सुधर सकता है। ___आत्मानन्द रूपी लोकोत्तर सुधारस का पान करने वाले सिंहगुफावासी मुनि ने लोकेषणा के चक्कर में पड़ कर अपनी महान साधना को बर्बाद कर दिया । वे कम्वल लेकर और पाटलीपुत्र पहुँच कर अपनी सफलता पर प्रसन्न हो रहे हैं । जातीय स्वभाव के कारण गधा राख में लोट-पोट होता है | विषय की ओर होन प्रवृत्ति
SR No.010709
Book TitleAadhyatmik Aalok Part 01 and 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj, Shashikant Jha
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year
Total Pages599
LanguageHindi, Sanskrit, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Discourse
File Size28 MB
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