SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 364
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 356 आध्यात्मिक आलोक मुनि के मन में विचारों की आंधी आ रही थी। वह अपनी पद-मर्यादा को विस्मृत कर चुके थे । आखिर उन्होंने निश्चय किया-'मैं रूपकोषा के सामने खाली हाथ नहीं जा सकता । प्राण जाएं तो जाएं पर मैं खाली हाथ नहीं जाऊंगा । खाली हाथ जाने में पुरुषत्व नहीं, प्रतिष्ठा नहीं, मानवता भी नहीं है।' सिंह गुफावासी मुनि के सामने अपनी शान और मान-मर्यादा का सवाल था। शान के सामने संयम परास्त हो रहा था । किन्तु जब उन्होंने पुनः रत्नकंबल लाने का निश्चय किया, तभी मन में एक नयां प्रश्न उत्पन्न हुआ । प्रश्न था-नेपाल-नरेश दुबारा कम्बल देंगे या नहीं ? अर्थ की समस्या उपस्थित होती है तो मनुष्य संकोच और लिहाज को भी तिलांजलि दे देता है । धार्मिक लाभ लेने वाले भी तर्क-वितर्क करके धर्म-मार्ग से विमुख हो जाते हैं । शादी, विवाह या आर्थिक लाभ का काम हुआ तो कोई किसी का साथ नहीं खोजता | दुकान या कारखाने का मुहूर्त करते समय साथी नहीं ढूंढा जाता, किन्तु धार्मिक कार्य के लिए एक को कहीं जाना पड़े तो साथी चाहिए । मुनि आत्मभाव से बाहर निकल कर अनात्मभाव में रमण कर रहे थे । कम्बल क्या लुटा मानों उनके जीवन का सर्वस्व लुट गया । उनकी भविष्य सम्बन्धी अनेक मनोहर कल्पनाओं का भवन ढह गया। उनके मन में चिर काल तक द्वन्द्व की स्थिति बनी रही । वे किंकर्तव्यविमूढ़ हो रहे । अन्त में एषणा की विजय हुई। भटके मन ने आदेश दिया-'प्रयत्न करो, सफलता मिले चाहे न मिले । पुरुष का काम पुरुषार्थ करना है। पुरुषार्थ करने वाले को अन्त में सफलता प्राप्त होती ही है। निराश होकर बैठ जाना तो असफलता की विजय स्वीकार करना है । यह पुरुषत्व का अपमान है । अतएव जिस कार्य में हाथ डाला है उसे सिद्ध करके ही दम लेना चाहिए।' मन का आदेश मिलने पर पैरों को लाचार होकर पीछे की ओर बढ़ना पड़ा। वे वापिस नेपाल नरेश के पास पहुँचने को मुड़ गए । चलते-चलते राज-दरबार में पहुंचे। लज्जा और संकोच ने पहले तो मुनि के मुख पर ताला जड़ दिया । उनका मन आत्मग्लानि से भर गया । यद्यपि मुनि जीवन याचनामय होता है । उसकी समस्त आवश्यकताएं याचना से ही पूर्ण होती हैं 'सव्व से जाइ होइ, नत्थि किंचि अजाइयं ।
SR No.010709
Book TitleAadhyatmik Aalok Part 01 and 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj, Shashikant Jha
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year
Total Pages599
LanguageHindi, Sanskrit, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Discourse
File Size28 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy