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________________ 337 आध्यात्मिक आलोक स्वाभाविक है। धार्मिक दृष्टि से वृक्षों का काटना पाप है ही, मगर लौकिक दृष्टि से देखा जाय तो भी उनका काटना हानिकारक है। वृक्षों को सुरक्षित रखने से छाया, फल-फूल आदि की प्राप्ति होती है। इसके अतिरिक्त जहां वृक्षों की बहुतायत होती है वहां वर्षा भी अधिक होती है, जिससे फसल में वृद्धि होती है। इस प्रकार धार्मिक और लौकिक दोनों दृष्टियों से वृक्षों का उच्छेदन करना अनुचित है, अधर्म है। जीव-जगत् पर वृक्ष का कितना महान उपकार है । एक-एक वृक्ष हजार-हजार प्राणियों का पालन करता है। उससे पशुओं, पक्षियों और मानवों का सभी का रक्षण और पालन होता है । अतएव जब वृक्ष हमारा रक्षक है तो हमारे द्वारा भी वह रक्षणीय होना चाहिए । पुराने जमाने के लोग पुराने और उखड़े हुए वृक्षों के सिवाय अन्य किसी को काटना उचित नहीं समझते थे । यह उनका व्यावहारिक दृष्टिकोण था । धार्मिक दृष्टिकोण से वृक्षों का छेदन करना इसीलिए वर्जित है कि उसके प्रत्येक अंग में हजारों जीव निवास करते हैं । वृक्ष के मूल में पृथक् और फलों-फूलों में पृथक्-पृथक् जीव होता है । जो वृक्ष का उच्छेदन करता है वह एक ऐसे साधन को नष्ट करता है जो हजारों वर्ष विद्यमान रह कर अनेकानेक जीवों का अनेक प्रकार से उपकार कर सकता है । इसके अतिरिक्त वह जीवघात के पाप का भागी भी होता है । अतएव सदगृहस्थ का यह कर्तव्य है कि वह जंगल का ठेका लेकर और वृक्षों को काट कर अपनी आजीविका न चलाए । उदरपूर्ति के अनेक साधन हो सकते हैं जो पापरहित या अल्पतर पाप वाले हों। ऐसी स्थिति में पेट पालने के लिए घोर पाप उपार्जित करना और आत्मा को गुरुकर्मा बनाना विवेकशील पुरुषों के लिए उचित नहीं है । मनुष्य सम्पत्तिशाली बनने के लिए पाप के कार्य करता है मगर यह नहीं सोचता कि ऐसा करके वह आत्मा की अनमोल सम्पत्ति नष्ट कर रहा है । उस सम्पत्ति के अभाव में उसका भविष्य अत्यन्त दयनीय हो जाएगा । अल्पारंभ के कार्यों से ही जब गृहस्थ जीवन का निर्वाह निर्बाध रूप से हो सकता है तो क्यों अनन्त जीवों का घात किया जाय ? पर का घात करना वस्तुतः आत्मघात करना है, क्योंकि पर के घात से आत्मा का अहित होता है । एक मनुष्य किसी जीव की घात करने को उद्यत हो रहा है, कदाचित् उस जीव का घात हो जाय, कदाचित् वह बच भी जाय, मगर घातक तो पाप बन्ध करके अपनी आत्मा का घात कर ही लेता है। उसके चित्त में कषाय का जो उद्रेक होता है, उससे आत्मिक गुणों का विघात होता है और वह विघात ही उसका आत्मविघात कहलाता है। स्मरण रखना चाहिए, कर्म अपना फल दिये बिना नहीं रहते । घात का. प्रतिघात होता है । आज तुम जिसका छेदन-भेदन करके प्रसन्न होते हो, वही आगे
SR No.010709
Book TitleAadhyatmik Aalok Part 01 and 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj, Shashikant Jha
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year
Total Pages599
LanguageHindi, Sanskrit, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Discourse
File Size28 MB
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