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________________ 332 आध्यात्मिक आलोक गुरु लोभी चेला लालची, दोनों खेलें दाव । दोनों डूबा बापड़ा बैठ पत्थर की नांव ।। और भी कहा है बिल्ली गुरु बगुला किया, दशा ऊजली देख । कहो कालू कैसे तिरै, दोनों की गति एक ।। रूपकोषा कहती है - "आपका प्रयोजन है मेरे रंगमहल में रहने के लिए एक कमरे की अनुमति प्राप्त करना, किन्तु एक बात मेरी भी मान लीजिए।" । राग की स्थिति में मनुष्य का विवेक सुषुप्त हो जाता है । जिस पर राग भाव उत्पन्न होता है, उसके अवगुण उसे दृष्टिगोचर नहीं होते । गुणवान के गुणों का आकलन करना भी उस समय कठिन हो जाता है । रूपकोषा ने मुनि से भिक्षा ग्रहण करने की प्रार्थना की । मुनि ने आनाकानी नहीं की और भिक्षा अंगीकार करली । यह भिक्षा मुनि की कसौटी करने के लिए दी गई थी । वे कितने गहरे पानी में हैं, यह जानने के लिए ही दी गई थी, अतएव उसमें गरिष्ठ, मादक और उत्तेजक खाद्य थे । मुनि ने भिक्षा ग्रहण करके उसका उपयोग कर लिया । मुनि के मन पर आहार का असर हुआ । चिरकाल से पोषित विराग निर्बल पड़ने लगा और अनादिकालीन राग का भाव उभरने लगा । जैसे संध्या के समय सूर्य अस्त होने लगता है और अन्धकार अपने पैर फैलाने लगता है, उसी प्रकार मुनि के मनरूपी आकाश से विवेक का सूर्य अस्त होने लगा और मोह का अन्धकार अपना प्रसार करने लगा । उसको यह मनोदशा देखकर विचक्षण रूपकोषा ने कहा-"आप रंगमहल में रहने की अनुमति चाहते हैं और मैं प्रसत्रतापूर्वक आपको अनुमति देना चाहती हूँ, किन्तु अनुमति पाने से पहले आपको मेरी एक छोटी-सी शर्त स्वीकार करनी होगी । शर्त यह है कि एक रत्नजटित कंबल लाकर आप मुझे प्रदान करें। यह शर्त पूरी होते ही सारा रंगमहल आप अपना ही समझिए । यही नहीं, मैं भी आपकी दासी होकर सेवा करूंगी।" मुनि कुछ हिचकिचाए । सोचने लगे - "रत्नजटित कंबल कहां पाऊंगा मैं?' यह विचार कर वे असमंजस में पड़ गए । रूपकोषा ने उनके भाव को ताड़ कर कहा-"आप चिन्ता में पड़ गए हैं रत्नजटित कंबल नेपाल-नरेश के यहां मिलता है । अभ्यागत साधु-सन्तों को वे मुफ्त
SR No.010709
Book TitleAadhyatmik Aalok Part 01 and 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj, Shashikant Jha
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year
Total Pages599
LanguageHindi, Sanskrit, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Discourse
File Size28 MB
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