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________________ आध्यात्मिक आलोक 313 भौगोपभोग की सामग्री परिग्रह है और उसकी वृद्धि परिग्रह की ही वृद्धि है। परिग्रह की वृद्धि से हिंसा की वृद्धि होती है और हिंसा की वृद्धि से पाप की वृद्धि होती है । साधारण स्थिति का आदमी भी दूसरों की देखा-देखी उत्तम वस्तुएं रखना चाहता है । उसे सुन्दर और मूल्यवान फर्नीचर चाहिए, चांदी के बर्तन चाहिए, पानदान चाहिए, मोटर चाहिए और पड़ौसी के यहां जो कुछ अच्छा है सब चाहिए । जब सामान्य न्याय संगत प्रयास से वे नहीं प्राप्त होते तो उनके लिए अनीति और अधर्म का आश्रय लिया जाता है । अतएव मनुष्य के लिए यही उचित है कि वह अल्प सन्तोषी हो अर्थात् सहजभाव से जो साधन उपलब्ध हो जायं, उनसे ही अपना निर्वाह कर ले और शान्ति के साथ जीवनयापन करे । ऐसा करने से वह अनेक पापों से बच जायेगा और उसका भविष्य उज्ज्वल बनेगा । पूर्णरूप से त्यागमय जीवन यापन करने वाले भोगोपभोग की सामग्री से विमुख ही रहते हैं । भोगोपभोग की वस्तुएं दो कोटि की होती हैं ७) निर्जीव भोग्य और उपभोग्य पदार्थ, और (२) सजीव जैसे हाथी, घोड़ा, फूलमाला आदि । यद्यपि पूर्ण त्यागी को भी जीवन-निर्वाह के लिए भौगोपभोग की वस्तुओं को ग्रहण और उनका उपयोग करना पड़ता है, तथापि वह उनके उपयोग में आनन्द या शौक नहीं मानता । वह उन्हें जीवनयापन का अनिवार्य साधन समझ कर ही काम में लेता है । आसन, वसन, अशन आदि उसके लिए उपभोग्य नहीं वरन् जीवन-निर्वाह के साधन मात्र होते हैं। भावना में यदि अनासक्ति है तो कोई भी जीवन-निर्वाह का साधन भोग या परिग्रह नहीं बनता । आसक्ति होने पर सभी पदार्थ परिग्रह हो जाते हैं । स्थूलभद्र ने वेश्यालय में चार मास व्यतीत किए किन्तु परिपूर्ण अनासक्ति के कारण वे बेदाग रहे । आचार्य संभृतिविजय ने अपने तीन मुनियों को धन्यवाद दिया, और स्थूलभद्र ने काम-विजय कर जो सिद्धि पाई, उसके लिए उन्होंने 'दुष्करम् अतिदुष्करम्' कह कर अपना प्रमोद प्रकट किया । काम-विजय को सर्वाधिक महत्व देना गुरु महाराज का लक्ष्य था और यह उचित भी था किन्तु अन्य मुनियों को लगा कि गुरुजी ने पक्षपात किया है । वे सोचने लगे कि वेश्या के घर में रह कर चार मास व्यतीत कर लेना कौन बड़ी बात है । इसमें 'अति दुष्कर' क्या है ! 'वक्त्रं वक्ति हि मानसम्' इस कहावत का अर्थ यह है कि मनुष्य का चेहरा ही उसके मन की बात प्रकट कर देता है । भावभंगिमा को देख कर दूसरे के हृदय की थाह ली जा सकती है , अपने अन्य शिष्यों के चेहरों को देख कर विचक्षण
SR No.010709
Book TitleAadhyatmik Aalok Part 01 and 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj, Shashikant Jha
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year
Total Pages599
LanguageHindi, Sanskrit, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Discourse
File Size28 MB
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