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________________ आध्यात्मिक आलोक 311 विकृति का कारण वास्तव में मूल का परिपुष्ट न होना है । मूल पुष्ट होता है तो वह सड़ांध या विकृति का निराकरण कर देगा। इसी प्रकार विचार-बल यदि पुष्ट हो तो साधक अहिंसा सत्य आदि व्रतों का ठीक तरह से निर्वाह कर सकेगा । मूल ढीला हुआं तो सामायिक में भी प्रमाद सताएगा या निद्रा आएगी । भगवान महावीर स्वामी ने इन्हीं तथ्यों को सामने रखकर आनन्द आदि को उपदेश दिया है। दिग्द्रत के अतिचारों के बारे में पहले चर्चा की गई है । वे पाँच हैं । (७) ऊर्ध्वदिशा के परिमाण का अतिक्रमण (२) अघोदिशा सम्बन्धी परिमाण का अतिक्रमण ) तिर्की दिशा सम्बन्धी परिमाण का अतिक्रमण (1) एक दिशा के परिमाण को घटाकर दूसरी दिशा के परिमाण को बढ़ा लेना और (9) किये हुए परिमाण का स्मरण न रखना । यह भी कहा जा चुका है कि परिमाण का उल्लंघन उसी स्थिति में अतिचार माना गया है जब सन्देह की स्थिति में किया गया हो । अगर जान-बूझ कर उल्लंघन किया जाय तो वह अनाचार हो जाता है । भोगोपभोग परिमाण-भोजन, पानी, गंध, माला आदि जो वस्तु एक ही बार काम में आती है, वह उपभोग कहलाती है और जो वस्त्र, अलंकार, शय्या, आसन आदि वस्तुएं बारबार काम में लायी जाती हैं उन्हें परिभोग कहते हैं। श्रावक को ऐसी सब चीजों की मर्यादा कर लेनी चाहिए जिससे शान्ति और सन्तोष का लाभ हो, निरर्थक चिन्ता न करनी पड़े, तृष्णा पर अंकुश लग सके और जीवन हल्का हो । मनुष्य अपनी आवश्यकताओं को जितनी कम कर लेगा, उतनी ही अधिक शान्ति उसे प्राप्त हो सकेगी। अगर अपनी भोगोपभोग सम्बन्धी इच्छा को नियन्त्रित नहीं किया गया तो जिन्दगी उसके पीछे बर्बाद हो जाती है । भोगोपभोग के लिए ही मनुष्य हिंसा करता है, असत्य भाषण करता है, अदत्त ग्रहण करता है, कुशील सेवन करता है, और संग्रह परायण बनता है । यदि भोगोपभोग की लालसा कम हो गई तो हिंसा आदि पापों से स्वतः ही बचाव हो जाता है । कई ब्राह्मण पुजारियों ने मन्दिरों में दी जाने वाली बलि को बन्द करा दिया है । उन्होंने यह कह कर हिंसा रुकवा दी कि अभी मेरे रहते मिष्ठान का भोग लगने दो | मेरे न रहने के बाद जो चाहो सो करना । ऐसी बात वही कह सकता है जिसमें मांसभक्षण की लालसा न हो । वास्तव में भोग की लालसा न हो तो हिंसा जैसे अनेक बड़े बड़े पापों से पिण्ड छूट जाए। इस प्रकार भोगोपभोग के साथ पापों का अनिवार्य सम्बन्ध है । भोगोपभोग की लालसा जितनी तीव्र होगी, पाप भी उतने ही तीव्र होगे । अतएव जो सांधक
SR No.010709
Book TitleAadhyatmik Aalok Part 01 and 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj, Shashikant Jha
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year
Total Pages599
LanguageHindi, Sanskrit, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Discourse
File Size28 MB
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