SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 306
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 298 आध्यात्मिक आलोक की जाती है । साधक ने अपने स्थायी निवास के लिए जो केन्द्र नियत किया है, उससे ऊपर की ओर जाना ऊर्ध्व दिशा में गमन करना कहलाता है । वायुयान के सहारे या विद्या अथवा ऋद्धि के बल से ऊपर जाना होता है । कृप, खदान, समुद्रतल आदि अघोगमन के मार्ग हैं। पूर्व, पश्चिम आदि दिशाओं और विदिशाओं में जाना तिर्यक दिशा में गमन करना कहलाता है। इस प्रकार के व्रत को ग्रहण करने का उद्देश्य अपनी इच्छा या संग्रहवृत्ति को सीमित करना है । सभी स्थानों में भूमि, धन, धान्य आदि एक-सा ही है, ऐसा सोच लेने से मनुष्य नवीन-नवीन स्थानों या देशों में भटकना बंद कर देगा और मर्यादित क्षेत्र में रह कर अपने सादे और संयमी जीवन की आवश्यकताओं की पूर्ति करके निराकुलतापूर्वक धर्म का आचरण करके आनन्द में रहेगा । उसके जीवन में आकुलता-व्याकुलता और चिन्ता का बाहुल्य नहीं होगा। दिग्नत में जिस दिशा में जाने की जो मर्यादा की है, उसमें इधर से उधर मिला कर कमी बेशी नहीं करना चाहिए। ऐसा करने से व्रत का लक्ष्य सुरक्षित नहीं रहता । उदाहरणार्थ-किसी प्रावक ने सौ-सौ मील प्रत्येक दिशा में जाने का नियम लिया । उसकी कालान्तर में लोभ के वश होकर सवा-सौ मील तक जाने की इच्छा हुई। ऐसी स्थिति में किसी दूसरी दिशा में पच्चीस मील घटा कर वांछित दिशा में बढ़ा लेना और उस दिशा की सीमा को सौ के बदले सवा सौ मील कर लेना दिग्वत का अतिचार है। कांसा ( कामना ) से व्रतों में कमजोरी आती है । ज्यों-ज्यों कामना की वृद्धि होती है, त्यों-त्यों उसकी पूर्ति के साधनों का संग्रह बढ़ाया जाता है और उसके लिए दौड़-धूप भी बढ़ानी पड़ती है । स्पष्टतया इससे शान्ति भंग होती है और आकुलता बढ़ती है और अप्राप्त सामग्री को प्राप्त करने की धुन में मनुष्य प्राप्त सामग्री का आनन्द भी नहीं उठा सकता, फिर भी कामना का भूत उसके चित्त में प्रवेश करके उसे नचाता रहता है और नाना प्रकार की सुनहरी कल्पनाएं उसे बेभान बनाए रहती हैं । यद्यपि ज्ञानी पुरुषों ने स्पष्ट कर दिया है कि बाह्य पदार्थों का संयोग दुःख का ही कारण होता है और वह संयोग जितना अधिक बढ़ेगा उतना ही अधिक दुःख बढ़ेगा, फिर भी मनुष्य इस ओर ध्यान नहीं देता और मोह के नशे में पागल बन कर सुख प्राप्त करने की अभिलाषा से दुःख की सामग्री.बटोरता रहता है। शास्त्र में साधु को 'संजोगा विप्प मुक्कस्स विशेषण लगाया गया है । यह विशेषण उसकी निराकुलता एवं शान्ति का सूचक है । संयोग से विमुक्त होना दुःखों से छुटकारा पाना है, क्योंकि एक आचार्य कहते हैं
SR No.010709
Book TitleAadhyatmik Aalok Part 01 and 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj, Shashikant Jha
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year
Total Pages599
LanguageHindi, Sanskrit, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Discourse
File Size28 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy