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________________ आध्यात्मिक आलोक 291 परस्त्रीगमन के पापों से बच सके और आगे चल कर 'महात्मा' की महान पदवी से विभूषित हुए । माता की प्रेरणा से जैन मुनि के समक्ष ग्रहण किए गये व्रतों ने उनके जीवन को कितना प्रभावित किया, इस बात को वही भलीभाँति समझ सकेगा जिसने उनकी जीवनी का अध्ययन किया है। किन्तु व्रत ग्रहण करना यदि महत्वपूर्ण है तो उसका यथावत् पालन करना भी कम महत्वपूर्ण नहीं है | उचित है कि मनुष्य अपने सामर्थ्य को तोल कर और परिस्थितियों का विचार करके व्रत को स्वीकार करे और फिर दृढ़ संकल्प के साथ उस पर दृढ़ रहे । व्रत ग्रहण करके उसका निर्वाह नहीं करने के भयंकर दुष्परिणाम या अनर्थ हो सकते हैं । किन्तु चूक के डर से व्रत ही नहीं करना बड़ी भूल है। जो कठिनाई आने पर भी व्रत का निर्वाह करता है और अपने संकल्प बल में कमी नहीं आने देता वह सभी कठिनाइयों को जीत कर उच्च बन जाता है। और अन्त में पूर्ण निर्मल बन कर चरम सिद्धि का भागी होता है। साधु-जीवन का दर्जा बहुत ऊंचा है, इसका कारण यही है कि वे महाव्रतों का मनसा, वाचा, कर्मणा पालन करते हैं, और महाव्रतों के पालन के लिए उपयोगी जो नियम उपनियम हैं, उनके पालन में भी जागरूक बने रहते हैं । ऐसा साधु अपनी साधना में सफलता प्राप्त कर परम ज्ञान पाता है । यदि ऊंची मंजिल वाला फिसल गया तो वह चोट भी गहरी खाता है । अतः उसे बहुत ही सावधान होकर चलना पड़ता है। भव-भव के बन्धनों को काटने में वही सफल होता है जो व्रतों का पूर्ण रूप से निर्वाह करता है। अपरिग्रह भी महाव्रतों में एक है । इस व्रत में साधक को पूर्ण रूप से अकिंचन होकर रहना पड़ता है । मगर श्रावक के लिए पूर्ण अपरिग्रह होकर रहना शक्य नहीं है, अतएव वह मर्यादित परिग्रह रखने की छूट लेता है । किन्तु व्रतधारी श्रावक परिग्रह को गृह-व्यवहार चलाने का साधन मात्र मानता है । कमजोर आदमी लकड़ी का सहारा लेकर चलता है और उसे सहारा ही समझता है । कमजोरी दूर होने पर वह लकड़ी का प्रयोग नहीं करता । अगर वह लकड़ी को ही साध्य मान ले और अनावश्यक होने पर भी हाथ में थामे रहे तो अज्ञानी समझा जाएगा । इसी प्रकार व्रती श्रावक धन-वैभव आदि परिग्रह को जीवन-यात्रा का सहारा समझता है, साध्य नहीं । धन अर्थात् परिग्रह को ही सर्वस्व समझ लेने से सम्यग्दृष्टि नहीं रहती । वह जो परिग्रह रखता है, अपनी आवश्यकताओं का विचार करके ही रखता है और उसका जीवन इतना सादा होता है कि उसकी आवश्यकताएं भी अत्यल्प होती हैं इस कारण वह आवश्यक परिग्रह की छूट रखकर शेष का परित्याग कर देता है।
SR No.010709
Book TitleAadhyatmik Aalok Part 01 and 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj, Shashikant Jha
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year
Total Pages599
LanguageHindi, Sanskrit, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Discourse
File Size28 MB
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