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________________ 285 आध्यात्मिक आलोक और उद्जन बमों का निर्माण हुआ, उससे जगत् में क्या शान्ति हुई है ? बुद्धिमान, वैज्ञानिक राजनीतिज्ञों के हाथ की कठपुतली बने हुए हैं। वे अपनी बुद्धि का दुरुपयोग करके संहारक साधनों का निर्माण करके दुनिया को भीषण संकट में डाल रहे हैं। ऐसे पण्डितों की पण्डिताई किस काम की है ? जो तन से दूसरों की सेवा करेगा, अपनी विद्या का उपयोग दूसरों को सम्यग्ज्ञान देने में करेगा, शक्ति के द्वारा दीनों की सहायता करेगा, वह मनुष्य उदितोदित माना जाएगा । वह दीपक से दीपक जगाने वाला है, पुण्य के द्वारा पुण्य का उपार्जन करने वाला है। उसके पुण्य को पुण्यानुबन्धी पुण्य समझना चाहिए । महावीर जैसे महापुरुष आज भी हमारे हृदय में विराजमान हैं, उनका नाम हमारे हृदय में पवित्र प्रेरणा उत्पन्न करता है और उनका स्मरण हृदय में श्रद्धा-भक्ति का स्रोत प्रवाहित कर देता है क्योंकि उन्होंने स्वयं आदर्श-जीवन व्यतीत कर जन-समाज के उत्थान में महान योग प्रदान किया । न केवल वाणी के द्वारा ही वरन उन्होंने अपने जीवन-व्यवहार से भी उच्च आदर्श हमारे समक्ष उपस्थित किए । ऐसे महान व्यक्ति ही जगत् में वन्दनीय और अभिनन्दनीय होते हैं। इससे विपरीत जो पूंजी पाकर स्वयं उसका सदुपयोग नहीं करता, और दूसरों की सहायता नहीं करता प्रत्युत दुर्व्यसनों का पोषण करता है, वह इस लोक में निन्दित बनता है और अपरलोक को पापमय बना कर दुःखी होता है। पूर्वसंचित पुण्य का ही यह फल है कि हमें आर्यभूमि में जन्म मिला, मानव शरीर मिला, धर्म-संस्कार वाला कुल मिला, धन-वैभव मिला और सन्त समागम करने का सुयोग मिला । ऐसी स्थिति में आगे उदय का क्या रूप हो यह मनुष्य को सोचना चाहिए। जीवन की जो अवधि है, वह स्थायी टिकने वाली नहीं यह निश्चित है। शरीर त्यागने के पश्चात पुनः शरीर धारण करना पड़े और न भी धारण करना पड़े, परन्तु शरीर धारण करने के पश्चात् उसे त्यागना तो अनिवार्य ही है। कोई भी मनुष्य न अमर हुआ और न हो सकता है इसी प्रकार पुण्य के खजाने के समाप्त होने की भी अवधि है । जो भी कर्मबन्ध में बंधता है, वह चाहे शुभ हो या अशुभ, एक नियत अवधि तक ही आत्मा के साथ बद्ध रह सकता है । अवधि समाप्त होते ही वह आत्मा से पृथक् हो जाता है । इस नियम के अनुसार पूर्वोपार्जित पुण्यकर्म का भी क्षय होना अनिवार्य है । जिस खजाने में से खर्च ही खर्च होता रहता है और नवीन आय बिलकुल नहीं होती, वह कितना ही विपुल क्यों न हो, कभी न कभी समाप्त हो ही जाता है। इस तथ्य को कौन नहीं जानता ? व्यावहारिक जगत में धन
SR No.010709
Book TitleAadhyatmik Aalok Part 01 and 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj, Shashikant Jha
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year
Total Pages599
LanguageHindi, Sanskrit, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Discourse
File Size28 MB
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