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________________ आध्यात्मिक आलोक 271 अपने को विश्व का एकाधिपति मान कर इतर प्राणियों के जिन्दा रहने के अधिकार को भी स्वीकार करने को तैयार नहीं है। दयावान् गृहस्थों का कर्तव्य है कि वे पशु-पक्षी आदि समस्त मनुष्येतर प्राणियों को अपना छोटा भाई समझें और उनके साथ वही व्यवहार करें जो बड़े भाई को छोटे भाई के साथ करना चाहिए । इतना न हो सके तो भी उनके प्रति करुणा का भाव तो रखना ही चाहिए । जब गाय-भैंस जैसे उपयोगी पशु वृद्ध हो जाएं तो उन्हें कसाई के हाथों न बेचें । पशुपालक इन को नहीं बेचेंगे तो कसाईखाने चलेंगे ही कैसे ? आज आदिवासियों तथा अन्य पिछड़ी जातियों में दया की भावना तथा अन्य सद्भावनाएं उत्पन्न कर दी जाएं तो बड़ा भारी सामाजिक लाभ हो सकता है इससे उनकी आत्मा का जो कल्याण होगा, उसका तो कोई मूल्य ही नहीं आंका जा सकता । आज उनके बीच काम करना जैनियों का सर्वोच्च कर्त्तव्य होना चाहिये । इसकी आज सबसे बड़ी आवश्यकता है। पिछड़े एवं असंस्कृत जनों के सुधार के लिए कोरा कानून बना देने से कोई. विशेष लाभ नहीं होगा | असली और मूलभूत बात है उनकी मनोभावनाओं में परिवर्तन कर देना । मनोभावना जब एक बार बदल जाएगी तो जीवन में आमूलचूल परिवर्तन स्वतः आ जाएगा फिर उनकी सन्तति परम्परा भी सुधरती चली जाएगी। आप जानते हैं कि समाज व्यक्तियों के समूह से बनता है । अतएव व्यक्तियों के सुधार से समाज का सुधार होता है और समाज के सुधार से शासन में सुधार आता है । अगर आप अपने किसी एक पड़ोसी की भावना में परिवर्तन ला देते हैं और उसके जीवन को पवित्रता की ओर प्रेरित करते हैं तो समझ लीजिए कि आपने समाज के एक अंग को सुधार दिया है। प्रत्येक व्यक्ति यदि इसी प्रकार सुधार के कार्य में लग जाय तो समाज का कायापलट होते देर न लगे । ___ आज इस देश में जब अनैतिकता, भ्रष्टाचार, घूसखोरी और अप्रामाणिकता आदि दोषों का अत्यधिक फैलाव हो रहा है और मनुष्य की सद्भावनाएं विनष्ट होती जा रही हैं तब इस प्रकार के सुधार की बड़ी आवश्यकता है । आज जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में भ्रष्टाचार प्रवेश कर चुका है । वह निरन्तर बढ़ता गया और उसकी रोकथाम न की गई तो इस देश की क्या दशा होगी, कहना कठिन है । अतएव प्रत्येक विचारशील व्यक्ति को सर्वप्रथम तो अपने जीवन में प्रविष्ट बुराइयों को साहस के साथ दूर करना चाहिए और फिर अपने पड़ोसियों को सुधारने का प्रयत्न करना
SR No.010709
Book TitleAadhyatmik Aalok Part 01 and 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj, Shashikant Jha
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year
Total Pages599
LanguageHindi, Sanskrit, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Discourse
File Size28 MB
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