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________________ 261 आध्यात्मिक आलोक धारण करना, इत्यादि ऐसी बातें हैं जिनसे ब्रह्मचारी को सदैव बचते रहना चाहिए । जो इनसे बचता रहता है, उसके ब्रह्मचर्य व्रत को आंच नहीं आती । जिस कारण से भी वासना भड़कती हो, उससे दूर रहना ब्रह्मचारी के लिए आवश्यक है। __ प्रत्येक मनुष्य स्थूलभद्र और विजय सेठ नहीं बन सकता । स्थूलभद्र का कथानक आपने सुना है । विजय सेठ भी एक महान् सत्वशाली गृहस्थ थे, जिनकी ब्रह्मचर्य साधना बड़े-से-बड़े योगी की साधना से समता कर सकती है । विवाह होने से पूर्व ही उन्होंने कृष्णपक्ष में ब्रह्मचर्य पालन की प्रतिज्ञा अंगीकार की थी। उनकी पत्नी विजया ने भी विवाह से पूर्व ही एक पक्ष, शुक्लपक्ष, में ब्रह्मचर्य पालन की प्रतिज्ञा ली थी । संयोगवश दोनों विवाह के बन्धन में आबद्ध हो गए। दोनों एक साथ रहे फिर भी अपना व्रत अखंडित रख सके । माता को विलगाव मालूम न हो और शुद्धवासना विहीन प्रेम भी बना रहे, ऐसा आदर्श-जीवन उस दम्पत्ति ने व्यतीत किया । वे विशिष्ट साधक थे, किन्तु साधारण साधक के लिए तो यही श्रेयस्कर है कि ब्रह्मचर्य की साधना के लिए वह स्त्री के सानिध्य में न रहे और एकान्त में वार्तालाप आदि तक न करे। मुनि स्थूलभद्र की साधना उच्चकोटि की थी। उनका संयम अत्यन्त प्रबल था । एक शिशु को, जिसमें कामवासना का उदय नहीं हुआ है इन्द्राणी भी षोडशवर्षीया सुन्दरी का रूप धारण करके आवे तो उसे नहीं लुभा सकती । स्थूलभद्र ने अपने मन को बालक के मन के समान वासना विहीन बना लिया था । यही कारण है कि प्रलोभन की परिपूर्ण सामग्री विद्यमान होने पर भी रूपकोषा उन्हें नहीं डिगा सकी बल्कि उन्होंने ही रूपकोषा के मन को संयम की ओर मोड़ दिया। वर्षावास का समय समाप्त हो गया । मुनिराज प्रस्थान करने लगे । रूपकोषा उन्हें विदाई दे रही है । बड़ा ही भावभीना दृश्य है । मनुष्य का मन सदा समान नहीं रहता । सन्त-समागम पाकर बहुतों के मन पर धार्मिकता और आध्यात्मिकता का रंग चढ़ जाता है किन्तु दूसरे प्रकार के वातावरण में आते ही उसके उतरते भी देर नहीं लगती । धर्म-स्थान में आकर और धार्मिकों के समागम में पहुँच कर मनुष्य व्रत और संयम की बात सोचने लगता है किन्तु उससे भिन्न वायुमण्डल में वह बदल जाता है । सामान्यजनों की ऐसी मनोदशा होती है । मुनि स्थूलभद्र मानवीय मन की इस चंचलता से भलीभाति परिचित थे । अतएव उन्होंने प्रस्थान के समय रूपकोषा को सावधान किया-"भद्रे ! तू ने अपने स्वरूप को पा लिया है। अब सदा सतर्क रहना, काम-क्रोध की लहरें तेरे मन-मानस सरोवर में न उठने पावें और उनसे तेरा जीवन मलिन न बन जाय । तेरा परायारूप विकारमय जीवन चला गया है, कुसंगति का निमित्त पाकर तेरे निज रूप पर पुनः कचरा न आ
SR No.010709
Book TitleAadhyatmik Aalok Part 01 and 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj, Shashikant Jha
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year
Total Pages599
LanguageHindi, Sanskrit, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Discourse
File Size28 MB
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