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________________ आध्यात्मिक आलोक 259 किया जा रहा है। ऐसे मूलभूत दोष पांच हैं जिनमें से ोन हिंसा, असत्य एवं चोरी का सविस्तार वर्णन किया जा चुका है । • स्वदार सन्तोष अथवा स्वपति सन्तोष-जगत् के जीवों में, चाहे वे मनुष्य हों अथवा मनुष्येतर, कामवासना या मैथुनवृत्ति पाई जाती है । मिथुन का अर्थ है जोड़ा ( युगल ) मिल कर जो कार्य करते हैं, वह मैथुन कहलाता है । तथापि मैथुन शब्द कामवासना की पूर्ति के उद्देश्य से किये जाने वाले कुकृत्य के अर्थ में रूढ हो गया है, अतः इसे कुशील भी कहते हैं । मोह के वशीभूत होकर कामुकवृत्ति को शान्त करने की चेष्टा करना मैथुन है | कामवासना की प्रबलता होने पर मनुष्य विजातीय प्राणियों के साथ भी भ्रष्ट होता है । मैथुन के अठारह भेद किये गये हैं । मैथुनक्रिया आत्मिक और शारीरिक शक्तियों का विघात करने वाली है । इससे अनेक प्रकार के पापों की परम्परा का जन्म होता है । जिस मनुष्य के मस्तिष्क में काम-सम्बन्धी विचार ही चक्कर काटते रहते हैं, वह पवित्र और उत्कृष्ट विचारों से शून्य हो जाता है । उसका जीवन वासना की आग में ही झुलसता रहता है । व्रत, नियम, जप, तप, ध्यान, स्वाध्याय और संयम आदि शुभ क्रियाएं उससे नहीं हो सकतीं । उसका दिमाग सदैव गन्दे विचारों में उलझा रहता है । पतित भावनाओं के कारण दिव्य भावनाएं पास भी नहीं फटकने पाती । अतः जो पुरुष साधना के मार्ग पर चलने का अभिलाषी हो उसे अपनी कामवासना को जीतने का सर्वप्रथम प्रयास करना चाहिए। आज इस विषय में अनेक प्रकार के भ्रम फैले हुए हैं और फैलाये जा रहे हैं। एक भ्रम यह है कि कामवासना अजेय है; लाख प्रयत्न करने पर भी उसे जीता नहीं जा सकता । ऐसा कहने वाले लोगों को संयम:साधना का अनुभव नहीं है । जो विषय-भोग के कीड़े बने हुए हैं, वे ही इस प्रकार की बातें कह कर जनता को अधःपतन की ओर ले जाने का प्रयत्न करते हैं । 'स्वयं नष्टः परानाशयति-जो स्वयं नष्ट है वह दूसरों को भी नष्ट करने की कोशिश करता है । ऐसे लोग स्थूलभद्र, जैसे महापुरुषों के आदर्श को नहीं जानते हैं, न जानना ही चाहते हैं । वे अपनी दुर्बलता को छिपाने का जघन्य प्रयास करते हैं । वास्तविकता यह है कि ब्रह्मचर्य आत्मा का स्वभाव है और मैथुन विभाव या पर-भाव है । स्वभाव में प्रवृत्ति करना न अस्वाभाविक है और न असंभव ही । भारतीय संस्कृति के अग्रदूतों ने, चाहे वे किसी धर्म व सम्प्रदाय के अनुयायी रहे हों, ब्रह्मचर्य को साधना का अनिवार्य अंग माना है।
SR No.010709
Book TitleAadhyatmik Aalok Part 01 and 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj, Shashikant Jha
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year
Total Pages599
LanguageHindi, Sanskrit, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Discourse
File Size28 MB
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