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________________ 73 आध्यात्मिक आलोक 255 अपावनता का अनुभव करता है । जो रक्त इतना अपावन और अशुचि है उसे क्या देवता उदरस्थ करके सन्तुष्ट और प्रसन्न हो सकता है ? मगर जो स्वयं जिह्वालोलुप हैं और खुन जिसकी दादों में लग गया है, वह देवी-देवता के नाम पर पशु की बलि चढ़ाता है और उसका उपदेश करता है । यह सब निम्न श्रेणी की कामना के रूप हैं । तुलसीदासजी ने की ही कहा है 'जाकी रही भावना जैसी, प्रभु मूरत देखी तिन तैसी अब रूपकोषा का आकर्षण भोगी पुरुषों की ओर न रहकर परमात्मा की ओर हो गया । उसका चित्त भोगों से और भोग-सामग्री से विरक्त हो गया । अनादिकालीन मोह के संस्कारों के कारण आत्मा स्वभाव से विमुख होकर विभाव की ओर प्रेरित होती है। संसार में काम भोग उसे प्रिय लगते हैं और इसी दुवृत्ति के कारण लोग बड़े चाव से अपने मकानों की दीवालों पर अश्लील चित्र लगाते हैं । जहां देखो जनता को भड़काने वाले चित्र दृष्टि पथ में आते हैं । इन चित्रों को देखने वाले की मानसिक प्रवृत्ति तो पतनोन्मुख होती ही है, नारी जाति का अपमान भी होता है । विज्ञापनों तथा कैलेंडरों के नारी चित्रों की वेशभूषा पूर्ण नग्न नहीं तो अर्द्धनग्न तो रहती ही है । उनके शरीर पर जो वस्त्र दिखाये भी जाते हैं वे अंगों के आच्छादन के लिए नहीं प्रत्युत नारी का कुत्सितता के साथ प्रदर्शन करने के लिए ही होते हैं । आज जनता की सरकार भी इधर कुछ ध्यान नहीं देती । पर आज की अपने अधिकारों को जानने वाली नारियां भी इस अपमान को सहन कर लेती हैं, यह विस्मय की बात है। अगर महिलाएं इस और ध्यान दें और संगठित होकर प्रयास करें तो मातृ जाति का इस प्रकार अपमान करने वालों को सही राह पर लाया जा सकता है। ___रूपकोषा ने अपनी चित्रशाला को धर्मशाला के रूप में बदल दिया । विलास की सामग्री हटा कर उसने विराग की सामग्री सजाई । जहां विलास की वैतरणी बहती थी, वहां विराग की महामंदाकिनी प्रवाहित होने लगी । श्रृंगार का स्थान वैराग्य ने ग्रहण किया। वर्षाकाल व्यतीत होने पर महामुनि स्थूलभद्र पाप-पंक में लिप्त आत्मा का उद्धार कर के अपने गुरु के निकट चले गए। - मुनि ने अपने सदगणों की सौरभ से वेश्या के जीवन को सुरभित कर • दिया। वैश्या के मन का कण-कण मुनि के प्रति कृतज्ञता से परिपूर्ण हो गया । वह '
SR No.010709
Book TitleAadhyatmik Aalok Part 01 and 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj, Shashikant Jha
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year
Total Pages599
LanguageHindi, Sanskrit, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Discourse
File Size28 MB
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