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________________ 246 आव्यात्मिक आलोक महामुनि स्थूलभद्र ने इस सत्य को अपने साधना-जीवन में चरितार्थ कर दिया और बता दिया कि साधना में, यदि वह जीवन का अभिन्न अंग दन जाए और साधक का अन्तरतम उससे प्रभावित हो जाय तो कितनी शक्ति है ? वेश्या के वितास एवं श्रृंगार की सभी सामग्री से सुसज्जित सदन में रहकर आत्मबल के द्वारा उस महामुनि ने वह साधना की कि जिससे न केवल उसने स्वयं का उद्धार कर लिया, वरन वेश्या का भी उद्धार कर दिया । स्थूलभद्र ने वेश्या से कहा-"भद्रे ! सांसारिक भोगों की आग बड़ी विलक्षण होती है । इस आग में जो अपने जीवन की आहुति देता है, वह एक बार नहीं, अनेक वार-अनन्त वार मौत के विकराल मुख में प्रवेश करता है। अज्ञानी मनुष्य मानता है कि मैं ये भोग भोग कर तृप्ति प्राप्त कर लूंगा मगर उस अमागे को अतृप्ति, असन्तुष्टि, पश्चात्ताप और जन्म-मरण की एक लंबी श्रृंखला के सिवाय अन्य कुछ हाथ नहीं लगता।" महामुनि ने रूपकोषा को समझाया-"कोषे । संसार का यह भोग-विलास प्रधान मार्ग दिखने में तो अति सुन्दर, सुखद एवं लुभावना लगता है, मगर प्रभु उससे दूर होते हैं । अतः यह मार्ग मुझे प्रिय नहीं है । जिस मार्ग से भगवान् के निकट पहुँचा जा सकता है, मुझे वही मार्ग प्रिय है।" हिंसा झूठ कुशील कर्म से, प्रभु होते हैं दूर । दया सत्व समभाव जहां है, रहते वहीं प्रभु हुजूर ।। एक कवि ने ठीक ही कहा है लघुता से प्रभुता मिले, प्रभुता से प्रभु दूर । जो लघुता धारण करो, प्रभु प्रभुत्ता होत हुजूर ।। मुनि ने रूपकोषा से पुनः कहा-"जो प्रभुता का अहंकार करता है, अपने को सर्वसमर्थ समझकर दूसरों की अवहेलना करता है उससे प्रभु दूर होते हैं । किन्तु जो महान् होकर भी अपने को लघु समझता है, जो अन्तरंग और बाह्य उपाधियों का परित्याग करके लघु बन जाता है, जो अत्यल्प साधनों से ही अपना जीवन शान्तिपूर्वक यापन करता है, उसे प्रभुता और प्रमु दोनों मिलते हैं । ज्यों-ज्यों जितनी२ जीवन में लघुता एवं निर्मलता आती जाएगी त्यों-त्यों उतनी ही प्रभु के निकट तू होतो जाएगी ।" मुनि के इस प्रकार के उद्गारों ने रूपकोषा के हृदयकोश को स्पर्श किया। अब तक उसने जीवन के एक ही पहलू को देखा था, अब दूसरा पहलू उसके सामने आया । उसके हृदय परिवर्तन को लक्षित करके मुनि ने पुनः कहा-"अगर परिपूर्ण संयम की साधना तुझसे न हो सकती हो तो कम से कम मर्यादित संयम को अंगीकार करके श्राविका का जीवन अवश्य व्यतीत कर।"
SR No.010709
Book TitleAadhyatmik Aalok Part 01 and 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj, Shashikant Jha
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year
Total Pages599
LanguageHindi, Sanskrit, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Discourse
File Size28 MB
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