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________________ [४६] अस्तेय-अतिचार आत्मा स्वभावतः चिन्मय, आनन्दघन, परमेश्वर रूप और परम विशुद्ध है, तथापि अनादिकाल से उसके साथ विजातीय द्रव्यों का सम्मिश्रण हो रहा है । विजातीय द्रव्य का सम्मिश्रण ही अशुद्धि कहलाता है। आत्मा में यही अशुद्धि निरन्तर चली आ रही है । विजातीय द्रव्यों का यह सम्मिश्रण ही जैन परिभाषा में कर्म बन्ध कहलाता है । भगवान् महावीर ने जिस साधनापथ का स्वयं अवलम्बन किया और अपने अनुगामियों के समक्ष जिसे प्रस्तुत किया उसका एकमात्र लक्ष्य कर्म बन्ध का निरोध करना और पूर्व संचित विजातीय तत्वों से अपने आपको पृथक् करना है। इसी में साधना की सार्थकता है, साधना की समग्रता है । जिस साधक ने इतना कर लिया, समझ लीजिये कि वह कृतार्थ हो गया । उसे फिर कुछ भी करना शेष नहीं रहा । अतएव भगवान महावीर ने कहा है कि साधना के पथ पर अग्रसर होने से पहले साधक को दो बातें समझ लेनी चाहिए - 'किमाह बंधणं वीरो, किंवा जाणं तिउट्टई ।' अर्थात् (9) बंध और बंध का कारण क्या है ? (२) बंध से छूटने का उपाय क्या है ? शास्त्रीय परिभाषा के अनुसार बन्ध के कारण को 'आसव' कहा गया है। यदि आत्मा की एक सरोवर से कल्पना की जाय तो उसमें नाना दिशाओं से आने वाले विजातीय द्रव्यों अर्थात् कार्मण वर्गणा के पुदगलों को जल कहा जा सकता है। जिस सरोवर के सलिलागमन के स्रोत बन्द नहीं होते, उसमें जल निरन्तर आता ही रहता है । उस जल को उलीचने का कितना ही प्रयत्न क्यों न किया जाय, सरोवर रिक्त नहीं हो सकता, क्योंकि नया-नया जल उसमें आता रहता है। यही स्थिति आत्मा की है। प्रतिक्षण, निरन्तर, निर्जरा यानि जल निष्कासन का क्रम चालू है-पल भर के
SR No.010709
Book TitleAadhyatmik Aalok Part 01 and 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj, Shashikant Jha
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year
Total Pages599
LanguageHindi, Sanskrit, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Discourse
File Size28 MB
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