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________________ 15 आध्यात्मिक आलोक श्रेणिक के राज्य-भोग त्यागकर वीतराग प्रभु के चरणों में जाने का भी मूल रहस्य यही है। साधनों के द्वारा मिलने वाले अवर्णनीय आनन्द और अलौकिक शान्ति के मुकाबिले भौतिक सुख तुच्छ और नगण्य है। लौकिक दृष्टि में बड़प्पन का मापदण्ड धन, योग्यता या पद आदि माना जाता है और चरित्र को उतना महत्व नहीं दिया जाता, किन्तु धार्मिक दृष्टि में चरित्रवान ही सम्मान का पात्र समझा जाता है, पूंजी, उच्चपद, हुकूमत या भूमि वाला नहीं । कुटी में रहने वाले ऋषि-मुनियों के मुकाबले में गगनचुम्बी महलों में रहने वाले छत्रपति नरेश की कोई गिनती नहीं होती। कहा भी है राजा योगी दोनों ऊंचा, तांबा तूंबा दोनों सुच्चा । तांबा डूबे तूंबा तिरे, या कारण राजा योगी के पावा पड़े। सम्राट् श्रेणिक पद, धन, सम्पदा और सम्मान की दृष्टि से साधक आनन्द से ऊंचे थे किन्तु धर्म के क्षेत्र में आनन्द का स्थान श्रेणिक से ऊंचा माना जाता है, क्योंकि वह व्रतधारी है। साधक को अनुकूल साधन की भी आवश्यकता होती है, साधना के मार्ग में जब साधक को अनुकूल वातावरण मिलता है, तभी वह सुमार्ग में अग्रसर होता है। प्रतिकूल परिस्थिति में साधक क्षणभर भी शान्ति नहीं पाता। परिस्थिति मन को आन्दोलित करती रहती है और साधक में तन्मयता एवं एकाग्रता का समावेश ही नहीं होने देती। स्थानांग सूत्र के दूसरे स्थान में भगवान् महावीर ने कहा है कि-दो कारणों से मनुष्य वीतराग धर्म का श्रवण नहीं कर पाता, वे हैं 'आरम्भे चेव परिग्गहे चेव' आरम्भ और परिग्रह। आरम्भ और परिग्रह साधना के राजमार्ग में सबसे बड़े रोड़े हैं। जिस मनुष्य का मन आरम्भ और परिग्रह के दलदल में फंसा हो, वह सहसा उससे निकल कर साधना के पथ पर आगे नहीं बढ़ सकता । परिग्रह से तात्पर्य केवल संग्रह-वृत्ति ही नहीं, वरन् आन्तरिक आसक्ति भी है। ग्रह का शाब्दिक अर्थ पकड़ने वाला जानता है, आकाश के ग्रह दो प्रकार के होते हैं एक सौम्य और दूसरा क्रूर । ये मानव-जगत से दूर के ग्रह हैं फिर भी इनमें से एक मन को आनन्दिा करता है और दूसरा आतंकित । हम इन दूरवासी ग्रहों की शान्ति के लिये विविध उपाय करते हैं किन्तु हृदय गगन-मण्डल में विराजमान परिग्रह रूप बड़े ग्रह की शान्ति का कुछ भी उपाय नहीं करते । परिग्रह चारों ओर से पकड़ने वाला है। इसके द्वारा पकड़ा गया व्यक्ति न केवल तन से बल्कि मन और
SR No.010709
Book TitleAadhyatmik Aalok Part 01 and 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj, Shashikant Jha
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year
Total Pages599
LanguageHindi, Sanskrit, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Discourse
File Size28 MB
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