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________________ आध्यात्मिक आलोक 205 और बारूद भी भेजते हैं । यह निश्चय में अनर्थ दण्ड है जो सर्वथा त्याज्य है । इससे पैसे की बर्बादी, हिंसा को प्रोत्साहन और तन की हानि सुनिश्चित होती है । अतः हर सदगृहस्थ को अपने घर में इसका उपयोग वर्जित करना चाहिए । विवेकी को चाहिए कि वह कोई भी हानिकारक वस्तु किसी को देते समय उस पर पूर्ण विचार करके ही दे । अन्यथा उस दी हुई वस्तु से होने वाले पाप का भागी दाता को भी बनना पड़ता है। आज अनर्थ दण्ड का प्रसार जोरों पर है । जीव हिंसा के साधन नित नए-नए बनते जा रहे हैं । खटमल और मच्छरों को मारने की दवा, मछली पकड़ने के काटे, चूहे बिल्ली को मारने की गोली और न जाने क्या-क्या हिंसा वर्द्धिनी वस्तुओं को बनाने में मानव मस्तिष्क उलझा हुआ है । ये सारे अनर्थ दण्ड हैं, जिनसे भर सक बचने में ही जीव का कल्याण है । पूर्वकाल में शादी की मनुहार में दूध, दही, फूल, फल, पान सुपारी आदि उपहार रूप में लाए जाते थे परन्तु आज बीड़ी, सिगरेट के डिब्बे भेजे जाने लगे हैं। आज का मानव धूम्रपान को गौरव का रूप मानता है। यह सचमुच दुःखद और शोचनीय स्थिति है | शादी करने वाले श्रीमंत सिगरेट, बीड़ी आदि नशीली वस्तुएं बाराती के डेरे पर भेजें इसकी अपेक्षा धर्मोपकरण की वस्तु भेजी जाय तो कैसा अच्छा रहेगा ? तम्बाखू जैसे जहरीले पदार्थो का पीना-पिलाना या देना यह सामाजिक बुराई है. कोई भी भला आदमी किसी को जहर देकर प्रसन्न होवे, इससे बढ़कर और आश्चर्य हो ही क्या सकता है। पाप कर्म का उपदेश देना यह भी अनर्थ दंड है। यदि कोई आदमी बुरी लत में पड़ा है और दूसरों को पापाचार की शिक्षा या प्रेरणा देता है तो यह भी अनर्थ दंड है। आनन्द ने कहा कि मैं पाप कर्म का उपदेश नहीं दूंगा, अच्छे कर्म में लगने की प्रेरणा देना न्याय एवं धर्म संगत है । स्वजन-परिजन एवं समाज कोई भी क्यों न हो, को इससे लाभान्वित कराना अपना परम कर्तव्य है किन्तु किसी को बुराई के पंक में फंसाना या उसकी प्रेरणा देना मानवता का महान् अभिशाप है । रसोई के पूर्व चूल्हा साफ करना, भोजन बन जाने के बाद भी आग को निरर्थक जलते नहीं रखना आदि अल्पारंभ की शिक्षा बालिकाओं को देना बुरा नहीं है, किन्तु बलात् बिना पूछे किसी को पाप रत होने का परामर्श देना, अनर्थ दण्ड है। भगवान् आदिनाथ ने उस समय के युगल मानवों को वर्तनादि बनाने, भोजन पकाने एवं कृषि आदि करने का ज्ञान दिया, जिससे आहार-विहार की सामग्री के अभाव से मानव संघर्ष और महा हिंसा का मार्ग अपनाने से बचे । उनका दृष्टिकोण स्पष्ट था । उन्होंने लोकोपकार के हेतु कृषि, मसि, लेखन, गणित और
SR No.010709
Book TitleAadhyatmik Aalok Part 01 and 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj, Shashikant Jha
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year
Total Pages599
LanguageHindi, Sanskrit, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Discourse
File Size28 MB
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