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________________ [३८] . धर्म साधना और स्वाध्याय अनन्त काल से पाप जल में गोते खाने वाले संसारी-जीवों को भगवान् महावीर ने पार पाने का मार्ग दर्शाया । उन्होंने कहा-इस विशाल भवसागर में जो साधक सावधानी नहीं रखता, उसका जीवन खतरे से गुजरता है । नाव की मजबूती और नाविक की तत्परता के बाद भी पार जाने के लिए बीच में विश्रामस्थल द्वीप अपेक्षित रहता है, जहां नाविक अपनी और नाव की देखभाल कर आगे का मार्ग निश्चित करता है । शास्त्र में विचार आता है कि-संसार सागर में ऐसा द्वीप कौन है, जिस पर स्थिर होकर टिका जा सके ? केशी श्रमण के पूछने पर गौतम ने कहा- वह धर्म द्वीप है, जो निराला, अविनाशी और पर उपकारी है। सागर का द्वीप कभी जल में डूब भी सकता है किन्तु यह कभी डूबने वाला नहीं है । यह साधक को दोनों ओर से सुरक्षित रखता है । मैं भी उसी के सहारे निर्भय टिका हूं। जैसा कि शास्त्र में कहा है जरा मरण वैगेणं, वुज्झमाणाण पाणिणं । धम्मो दीवो पइट्ठा य, गई सरणमुत्तमं ।। जरा और मरण के वेग से बहने वाले प्राणियों के लिये धर्म द्वीप है। धर्म की चार विशेषताएं हैं-१. प्रतिष्ठा, २. गति, ३. शरण, ४. द्वीप । धर्म का सहारा लेने से प्रतिष्ठा प्राप्त होती है । अतः इसे प्रतिष्ठा कहा गया है । "स्वरूपे गमनं गतिः" अर्थात् स्वरूप की ओर गमन के कारण इसे गति कहा है | शरण से तात्पर्य रक्षक है और राग-द्वेष के रूप दोनों बंधों से बचाने के कारण इसको द्वीप भी कहते हैं । द्वीप समुद्र से ऊंचा मस्तक किए खड़ा रहता है । वह मूक भाषा में मानों कहता है कि मेरी सेवा ग्रहण करो । बचना हो तो मेरी शरण में आ जाओ । जिस प्रकार आकाश अपनी विशालता से चिड़िया, गरुड़, पतंगा और अंतरिक्ष यात्री सबको गति
SR No.010709
Book TitleAadhyatmik Aalok Part 01 and 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj, Shashikant Jha
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year
Total Pages599
LanguageHindi, Sanskrit, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Discourse
File Size28 MB
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