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________________ 174 आध्यात्मिक आलोक भरता गया, तो वह डूबे बिना नहीं रहेगी । कातिवान् एवं बलवान शरीर भी काम, क्रोधादि के छिद्र होने से तिर नहीं सकता । छिद्र हो जाना उतना चिन्तनीय नहीं है जितना कि उन छिद्रों को नहीं रोकना और यात्रा चालू रखना। इच्छा को परिमित रखने के लिये आनन्द मुखवास का परिमाण करता है। इस त्याग में स्वाद नियन्त्रण की भावना है । स्वाद की सीमा यदि खुली छोड दी जाय तो उसका कभी अन्त नहीं होगा । इस प्रकार उल्लनिया विधि से परिमाण करते-करते मुखवास तक की आनन्द ने मर्यादा करली । यदि मानव आनन्द के समान अपनी इच्छाओं, आकांक्षाओं एवं आवश्यकताओं का परिस्थिति के अनुकूल संयम द्वारा नियन्त्रण कर ले, तो जीवन का भारी बोझ हल्का होगा और मन की चंचलता कम हो जायेगी तथा दूसरों से मांगने की आवश्यकता नहीं रहेगी । मन में सन्तोष होगा, तो भीतर से आत्मिक सुख लहलहाने लगेगा । पशु जीवनभर दोचार ही वस्तुएं ग्रहण कर लम्बी जिन्दगी काट लेते हैं, तो क्या कारण है कि कोई मनुष्य १०-२० वस्तुओं से जीवन-निर्वाह करना सोचले. तो उसका शरीर साथ न दे ? वन में रहने वाले ऋषि मुनि दो चार वस्तुओं से भी गुजारा कर दीर्घायु रहते थे । नागरिक जीवन की परिस्थिति भिन्न है फिर भी वहां सीमा की जा सकती है । गृहस्थ जीवन में रहने वाले लोग भी सीमित वस्तुओं से अच्छी तरह काम चला सकते हैं । जैसी संगति और अध्ययन होगा, वैसा ही मनुष्य अपना जीवन भी अच्छा बुरा बना सकेगा । भारत के लोग तामसी भोजन को क्यों अग्राह्य समझते हैं क्योंकि उनमें सुसंस्कार हैं और वे वस्तु की हेयोपादेयता को समझ कर इनका उपयोग करने का ज्ञान रखते हैं । भगवद् भक्ति तथा चिन्तन को कई लोग ढकोसला समझते हैं क्योंकि उन्हें जो संग मिला तथा जो अध्ययन की सामग्री मिली, उसी के अनुसार उनके विचारों का पोषण हुआ । यदि हम चाहते हैं कि हममें तथा हमारी भावी पीढी के लोगों में सुसंस्कार आवे, तो संगति और पठन-पाठन की सामग्री सुधारनी होगी । सन्तजनों की वाणी कुछ समय काम देगी, परन्तु उसमें स्थायित्व के लिए स्वाध्याय की आवश्यकता है। . अशुद्धि से शुद्धि की ओर जीवन को मोड़ लाने का काम कोई जादू से नहीं हो सकता । यह हृदय की चीज है। हो सकता है कभी स्थिति परिपक्व हो गई हो तो कुछ प्रेरक वाक्य निमित्त रूप में काम कर जांय, पर इसके पीछे पूर्व जन्म का संस्कार होना आवश्यक है । परिपक्व स्थिति में छोटे कारण भी जादू-सा प्रभाव कर जाते हैं, परन्तु आम तौर. पर ऐसा नहीं होता । ज्ञान का सम्बल ही एक ऐसा साधन है जिससे मानव अपनी जीवन-यात्रा सुचारु रूप से पार कर सकता है । १
SR No.010709
Book TitleAadhyatmik Aalok Part 01 and 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj, Shashikant Jha
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year
Total Pages599
LanguageHindi, Sanskrit, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Discourse
File Size28 MB
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