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________________ [३३] ज्ञान का सम्बल अनन्त आनन्द, ज्ञान और शक्ति के रूप में आत्मा सबमें विराजमान है, जिसमें जीवन है जो गतकाल में जीया वर्तमान में जीता है और भविष्य में जीता रहेगा । किन्तु मोहजन्य जीवन के कारण आत्मा पर अज्ञान रूपी पर्दा पड़ जाने से वह शुद्ध रूप में दिखाई नहीं देता | महापुरुषों की वाणी का उद्देश्य अज्ञान के पर्दै को दूर कर, आत्मा के शुद्ध रूप को प्रगट करना है । जब पर्दा दूर हो जाय तो मनुष्य को अशान्ति और आकुलता नहीं रहती और आत्मस्वरूप की प्राप्ति होती है। शुद्ध जीवन तब तक संभव नहीं, जब तक आत्मा अज्ञान से आकृत है । सद्गुरु या सत्संग का निमित्त पाकर साधक जीवन सुधार लेता और उनके अनुभव का लाभ लेकर प्रकाश पाता है । अतः प्रकाश पाने के लिए सत्संग आवश्यक है। शास्त्र में ज्ञान प्राप्ति के मुख्य दो मार्ग बतलाए हैं-एक निसर्ग और दूसरा अधिगम | सत्संगति या बिना गुरु के सहज ज्ञान पाना निसर्गज है, इसके पीछे, पूर्व जन्म की करनी छिपी होती है । ऐसे व्यक्ति प्राक्तन-बल से छोटा निमित्त पाकर भी अज्ञान का पर्दा हटा लेते हैं । अपने आप में अनुभव मिलाने का जिसको सौभाग्य प्राप्त नहीं है, वह भी सत्संग के द्वारा ज्ञान की किरण जगां लेता है । ज्ञानी मनुष्य सभी दृश्य जगत, परिजन, भोग्य वस्तु और सोना-चांदी आदि को पराई वस्तु समझता है। उसके मन में यही नाद गूंजता है कि-"मेरे अन्तर भया प्रकाश, ना अब मुझे किसी की आस ।" अन्तर में ज्ञान का प्रकाश होने से वह सोचा करता है कि तन, धन, दौलत, में मेरा रूप नहीं है, अतः उस पर से उसका अनुराग हट जाता है । परायी वस्तु पर वह प्रीति नहीं होती, जो अपने पर होती है । जैसे अपना छोटा बच्चा या मित्र या परिजन आ जाय तो उससे मिलने की आकांक्षा होती है और दूसरे सैकड़ों के प्रति नहीं होती । यह अपनेपन के कारण है । उसे 'पर' समझ लेने पर वैसा आकर्षण नहीं रहता । भौतिक पदार्थों के प्रति भी इसी प्रकार उन्हें 'पर'
SR No.010709
Book TitleAadhyatmik Aalok Part 01 and 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj, Shashikant Jha
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year
Total Pages599
LanguageHindi, Sanskrit, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Discourse
File Size28 MB
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