SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 171
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ आध्यात्मिक आलोक 163 तरफ वह नहीं देख पाता । सूक्ष्म दृष्टि से मनुष्य को भी अपनी आंख से रजकण निकालने के लिए दूसरे का सहारा लेना पड़ता है। पास में रहने वाल रजकण, वह नहीं देख पाता । चर्मचक्षु की दर्शनशक्ति इतनी सीमित है कि वह अपने आपको भी नहीं देख पाती, यद्यपि वह दूर की वस्तु देख लेती है । इसी कमी को दूर करने के लिए महापुरुषों ने प्रेरणा दी है कि अपने आपको जानो । पापों में डूबा हुआ मानव यदि धर्म- जागरण करे, रात को आत्म-स्वरूप का चिन्तन करे, तो अपने आपको ऊपर उठा सकेगा और जीवन धन्य बना सकेगा । सद्गृहस्थ आनन्द ने चिन्तन का आधार लिया और वह ऊपर उठ गया । वीतराग की अमृतवाणी श्रवणकर वह अमृतमय बन गया । श्रवणेन्द्रिय का स्वभाव ध्वनि को पकड़ना है, किन्तु उसे ग्रहण करना बुद्धि का काम है, जो बुद्धि पूर्वक सद्गुरु से पूछकर अपनी शंका का समाधान प्राप्त करता और धर्म मार्ग पर चलता है, वह आगे बढ़ता है । जीवन-निर्माण के लिए आनन्द ने अपने नित्य की आवश्यकता में कमी करली। उसने घृत, ओदन, दाल एवं साग आदि का परिमाण किया । घृत के सम्बन्ध में उसने शरत् कालीन गोघृत के अतिरिक्त सब का त्याग किया । साग में पालक, चंदलीया और मंडूक याने मंडवा को छोडकर शेष गोभी, मूली चना, और अफीम आदि सभी भाजी का उसने परित्याग किया । पत्तीदार सब्जियों तथा भिंडी, भट्टा आदि बन्द सब्जियों में कीट रहते हैं, इस पर लोगों का ध्यान नहीं जाता । आज के मानव का यह स्वभाव हो गया है कि विटामिन युक्त वस्तु कहने पर, वे उसे ग्रहण करने के लिए उतारू हो जाते हैं । लाल टमाटर विदेशी वस्तु है, किन्तु डाक्टरों की छाप लगी होने से, आप उसे व्यवहार में लेने लग गए हैं और देश की अनेक अच्छी वस्तुओं को भूल गए | आंवला, मेथी और पालक में भी यदि डाक्टरों की छाप लग जाय, तो क्या ये लाभकारी सिद्ध नहीं होगे । सम्यक दृष्टि आनन्द स्वाद के लिए भोजन नहीं करता, वरन् शरीर-संरक्षण के लिए करता था । वीतराग होने पर भी मानव को शरीरं रक्षा के लिए भोजन ग्रहण तो करना ही पड़ता है । हां, ज्ञानी के खाने का दृष्टिकोण दूसरा होता हैं और अज्ञानी का दूसरा | भाजी में क्षार पदार्थ होते हैं और क्षार पदार्थ की कमी होने से शरीर में अनेक विध रोग न हो जायं, अतः आनन्द प्रकृति तथा अपने जीवन के अनुभवों द्वारा निर्णय लेना चाहता था, ताकि शरीर का समुचित संरक्षण हो सके और आरंभ का दोष भी कम लगे ।
SR No.010709
Book TitleAadhyatmik Aalok Part 01 and 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj, Shashikant Jha
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year
Total Pages599
LanguageHindi, Sanskrit, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Discourse
File Size28 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy