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________________ 158 आध्यात्मिक आलोक अपराधियों को जेल में बन्द कर कहां तक उन्हें अपराध करने से रोका जा सकेगा तथा मनुष्य कब तक यों पशु की भाति बांध कर रखा जायेगा । सुरक्षा का सुदृढ प्रबन्ध होने पर भी दिल्ली, बम्बई सरीखे नगरों में कारें चुरा ली जाती हैं और दिन-दहाड़े सड़कों पर छुरे भोंके जाते हैं । न्यायाधीशों के समक्ष गोलियां चला दी जाती हैं और पहरे में से सरकारी द्रव्य लूट लिए जाते हैं। दण्डनीति मानवं को भयभीत करती है, किन्तु भय से रुकने वाला पशु है। दण्ड का उपयोग तो पशु-प्रकृति वाले मनुष्य के लिए ही हो सकता है । सच्चे इन्सान के लिए हृदय परिवर्तन आवश्यक है, जो ज्ञान से संभव है । जो दण्ड से माने, वह आदमी नहीं, पशु है । दण्ड के द्वारा भयभीत करके मनुष्य को अल्पकाल के लिए अपराध से बचाया जा सकता है, किन्तु हृदय परिवर्तन के अभाव में वह पुनः छिप-छिपे या प्रगट अपराध करना प्रारम्भ कर देता है। यदि दण्डनीति के साथ धर्म-नीति का समन्वय कर दिया जाय, तो सुपरिणाम निकल सकता है । दण्डनीति वाले भी यदि धर्मनीति का सहारा लिया करें, तो वांछित सफलता मिल सकती है। पूर्वकाल में भारतीय संस्कृति ने एक को दूसरे का पूरक माना था । दण्डनीति अज्ञानी को भयभीत करती और धर्मनीति मानव में विवेक को जागृत कर उसे ठीक रास्ते पर लगा देती है । दण्डनीति केवल पशु-प्रकृति के मानव के लिए आवश्यक है, परन्तु स्थायी सुधार के लिए उसे भी मानवीय प्रकृति का ज्ञान देना आवश्यक होगा । एक माता मारपीट कर बालक को सुधारती है, और दूसरी मां समझा-बुझाकर प्रेम-पूर्वक सुधारती है, दूसरी मां का असर स्थायी होगा । समझाकर तथा कारण बताकर बालक से काम लेने वाली मां बच्चे का जीवन सुधार सकती है । पर, मारने वाली नहीं । मारने-पीटने से सुधारने का उद्देश्य सफल नहीं होगा, क्योंकि वह जीवन में गहरी उतारने वाली बात नहीं है। मारने से बच्चे में ढिठाई बढ़ती है । अधिकांश मार के आदी बच्चे चोरी तथा अन्य कुचाल की प्रवृत्तियों में निर्भय हो जाते हैं । बाल मन्दिरों में एक महिला अनेक बच्चों को एकसाथ संभालती है, संकेत के द्वारा ही उनसे काम लेती और उनमें अच्छी आदतें डालती है । वहां छुट्टी होने पर भी बच्चे शोर नहीं करते । उनमें अनुशासनप्रियता उत्पन्न कर देती है । खेद की बात है कि जन्म देने वाली मां अपने बच्चों को सुसंस्कृत एवं अनुशासित नहीं कर पाती । जबकि बाल निकेतन में झुण्ड के झुण्ड बच्चों को एक अपरिचित महिला अनुशासित रखती है । उसके पास केवल भय नहीं है, किन्तु जीवन बनाने की कला है । जीवन वही महत्वशाली होता है, जहां विवेकपूर्ण नियन्त्रण है । नियमन के अभाव में जीवन पतित हो जाता है
SR No.010709
Book TitleAadhyatmik Aalok Part 01 and 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj, Shashikant Jha
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year
Total Pages599
LanguageHindi, Sanskrit, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Discourse
File Size28 MB
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