SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 143
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ आध्यात्मिक आलोक 135 वीतराग की वाणी में गंभीर रहस्य और मर्म भरा रहता है। यहां बिना किसी अर्थ के शब्द का प्रयोग नहीं होता । पyषण शब्द के विधान का स्रोत साधु साध्वी की मण्डली से है, जिनका जीवन अहिंसा एवं संयम प्रधान होता है । वे आठ माह भ्रमण में व्यतीत करते हैं और वर्ष के शेष चार मास में एक जगह स्थिर रहते हैं । इस एकत्र स्थिर वास का नाम चातुर्मास प्रख्यात है। आज की तरह पूर्वकाल में चातुर्मास वास की सुविधा सुलभ नहीं थी। भ्रमण करते-करते साधुगण वर्षाकाल आने पर किसी स्थान पर रुक जाते और वहीं चातुर्मास व्यतीत करते थे । चाहे वहां के निवासी जैन हों या अजैन वे ५५ दिन की अनुमति बढ़ाते हुए चातुर्मास का काल पूर्ण कर लेते थे। व्युत्पत्ति की दृष्टि से पर्दूषण शब्द परि और उषण इन दो शब्दों के मेल से बना है। जिसमें परि अच्छी तरह और उषण का अर्थ रहना होता है । अच्छी तरह से रहना पर्युषण का तात्पर्य है । "परि समन्तात् वसति आत्म सकांश इति पर्युषण" याने आत्मभाव में अच्छी तरह रहना, इसको पर्युषण कह सकते हैं । - यह दुष्कर्मों की होली जलाने का पर्व है । अनन्तकाल के पूर्व संचित दूषित कर्मों के कचरे को जला देने का यह विशिष्ट काल है । इस पर्व में पाप कर्मों की विशाल ढेरी को साधना तथा प्रभुभक्ति से जलाने का लक्ष्य सन्निहित है । यदि साधना का सच्चा रूप पकड़ लिया जाय और मनोयोग लगादें तो पापों की विशाल ढेरी भी अल्पकाल में जलाई जा सकती है । प्रभु के नाम की तेज अग्नि पाप पुंज को जलाने के लिए पर्याप्त मानी गई है वह चिनगारी का काम करती है, कविवर भक्त विनयचन्दजी ने कहा है पाप पराल को पुंज बन्यो अति, मानो मेरु आकारो । ते तुझ नाम हुताशन सेती, सहजां प्रज्वलत सारो-रे पदम प्रभु पावन नाम तिहारो। पदम प्रभु सचमुच प्रभु का नाम पाप-पराल के लिए अग्नि के समान है। संयम और तप में पापों को विनिष्ट कर देने की अजब शक्ति है । साधक का एक काम पाप न बढ़ने देना और दूसरा संचित पापों को मिटाना है । जब तक पापों की वृद्धि नहीं रुकती तबतक संचित का सफाया दुष्कर है । अतः जीवन को पाप रहित एवं निर्मल बनाने के लिए साधक को उपरोक्त बातों को ध्यान में रखना आवश्यक है।
SR No.010709
Book TitleAadhyatmik Aalok Part 01 and 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj, Shashikant Jha
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year
Total Pages599
LanguageHindi, Sanskrit, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Discourse
File Size28 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy